श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 722

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-23


ऊँ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणास्त्रिविध: स्मृत: ।
ब्रह्माणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता: पुरा ॥23॥[1]

भावार्थ

सृष्टि के आदिकाल से ऊँ तत् सत् ये तीन शब्द परब्रह्म को सूचित करने के लिए प्रयुक्त किये जाते रहे हैं। ये तीनों सांकेतिक अभिव्यक्तियाँ ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते समय तथा ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिए यज्ञों के समय प्रयुक्त होती थीं।

तात्पर्य

यह बताया जा चुका है कि तपस्या, यज्ञ, दान तथा भोजन के तीन-तीन भेद हैं- सात्त्विक, राजस, तथा तामस। लेकिन चाहे ये उत्तम हों, मध्यम हों, माध्यम हों या निम्न हों, ये सभी बद्ध तथा भौतिक गुणों से कलुषित हैं। किन्तु जब ये ब्रह्म- ऊँ तत् सत् को लक्ष्य करके किये जाते हैं तो आध्यात्मिक उन्नति के साधन बन जाते हैं। शास्त्रों में ऐसे लक्ष्य का संकेत हुआ हैं। ऊँ तत् सत् ये तीन शब्द विशेष रूप में परमसत्य भगवान के सूचक हैं। वैदिक मन्त्रों में ऊँ शब्द सदैव रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऊँ= परम का सूचक; तत्= वह; सत्= शाश्वत; इति= इस प्रकार; निर्देशः= संकेत; ब्रह्मणः= ब्रह्म का; त्रि-विधः= तीन प्रकार का; स्मृतः= माना जाता है; ब्राह्मणाः= ब्राह्मण लोग; तेन= उससे; वेदाः= वैदिक साहित्य; च= भी; यज्ञाः= यज्ञ; च= भी; विहिताः= प्रयुक्त; पुरा= आदिकाल में।

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