श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 548

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भक्तियोग
अध्याय 12 : श्लोक-16


अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय:।।[1]

भावार्थ

मेरा ऐसा भक्त जो सामान्य कार्य-कलापों पर आश्रित नहीं है, जो शुद्ध है, दक्ष है, चिन्तारहित है, समस्त कष्टों से रहित है और किसी फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहता, मुझे अतिशय प्रिय है।

तात्पर्य

भक्त को धन दिया जा सकता है, किन्तु उसे धन अर्जित करने के लिए संघर्ष नहीं करना चाहिये। भगवत्कृत से यदि उसे स्वयं धन की प्राप्ति हो, तो वह उद्विग्न नहीं होता। स्वाभाविक है कि भक्त दिनभर में दो बार स्नान करता है और भक्ति के लिए प्रात:काल जल्दी उठता है। इस प्रकार वह बाहर तथा भीतर से स्वच्छ रहता है। भक्त सदैव दक्ष होता है, क्योंकि वह जीवन के समस्त कार्यकलापों के सार की जानता है और प्रामाणिक शास्त्रों में दृढ़विश्वास रखता है। भक्त तभी किसी दल में भाग नहीं लेता, अतएव वह चिन्तामुक्त रहता है। समस्त उपाधियों से मुक्त होने के कारण कभी व्यथित नहीं होता, वह जानता है कि उसका शरीर एक उपाधि है, अतएव शारीरिक कष्टों के आने पर वह मुक्त रहता है।

शुद्ध भक्त कभी भी ऐसी किसी वस्तु के लिए प्रयास नहीं करता, जो भक्ति के नियमों के प्रतिकूल हो। उदाहरणार्थ, किसी विशाल भवन को बनवाने में काफी शक्ति लगती है, अतएव वह कभी ऐसे कार्य में नहीं लगाता, जिससे उसकी भक्ति में प्रगति न होती हो। वह भगवान के लिए मन्दिर का निर्माण करा सकता है और उसके लिए वह सभी प्रकार की चिन्ताएँ उठा सकता है, लेकिन वह अपने परिवार वालों के लिए बड़ा सा मकान नहीं बनाता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अनपेक्ष:=इच्छारहित; शुचि:=शुद्ध; दक्ष:=पटु; उदासीन=चिन्ता से मुक्त= गत-व्यथ:=सारे कष्टों से मुक्त; सर्व-आरम्भ=समस्त प्रयत्नों का; परित्यागी=परित्याग करने वाला; य:=जो; मत्-भक्त=मेरा भक्त: स:=वह; मे=मेरा; प्रिय:=अतिशय प्रिय।

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