श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 710

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-11


अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यमेवेति मन:समाधाय स सात्त्विक: ॥11॥[1]

भावार्थ

यज्ञों में वही यज्ञ सात्त्विक होता है, जो शास्त्र के निर्देशानुसार कर्तव्य समझ कर उन लोगों के द्वारा किया जाता है, जो फल की इच्छा नहीं करते।

तात्पर्य

सामान्यतया यज्ञ किसी प्रयोजन से किया जाता है। लेकिन यहाँ पर बताया गया है कि यज्ञ बिना किसी इच्छा के सम्पन्न किया जाना चाहिए। इसे कर्तव्य समझ कर किया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, मन्दिरों या गिरजाघरों में मनाये जाने वाले अनुष्ठान सामान्यतया भौतिक लाभ को दृष्टि में रख कर किये जाते हैं, लेकिन यह सतोगुण में नहीं है। मनुष्य को चाहिए कि वह कर्तव्य मानकर मन्दिर या गिरजाघर में जाए, भगवान् को नमस्कार करे और फूल तथा प्रसाद चढ़ाए। प्रत्येक व्यक्ति सोचता है कि केवल ईश्वर की पूजा करने के लिए मन्दिर जाना व्यर्थ है। लेकिन शास्त्रों में आर्थिक लाभ के लिए पूजा करने का आदेश नहीं है। मनुष्य को चाहिए कि केवल अर्चाविग्रह को नमस्कार करने जाए। इससे मनुष्य सतोगुण को प्राप्त होगा। प्रत्येक सभ्य नागरिक कर्तव्य है कि वह शास्त्रों के आदेशों का पालन करे और भगवान को नमस्कार करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अफल-आकाड्क्षिभिः= फल की इच्छा से रहित; यज्ञः= यज्ञ; विधि-दिष्टः= शास्त्रों के निर्देशानुसार; यः= जो; इज्यते= सम्पन्न किया जाता है; यष्टव्यम्= सम्पन्न किया जाना चाहिए; एव= निश्चय ही; इति= इस प्रकार; मनः= मन में; समाधाय= स्थिर करके; सः= वह; सात्त्विकः= सतोगुणी।

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