श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 468

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-37


वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।[1]

भावार्थ

मैं वृष्णिवंशियों में वासुदेव और पाण्डवों में अर्जुन हूँ। मैं समस्त मुनियों में व्यास तथा महान विचारकों में उशना हूँ।

तात्पर्य

कृष्ण आदि भगवान हैं और बलदेव कृष्ण के निकटतम अंश-विस्तार हैं। कृष्ण तथा बलदेव दोनों ही वसुदेव के पुत्र रूप में उत्पन्न हुए, अतः दोनों को वासुदेव कहा जा सकता है। दूसरी दृष्टि से चूँकि कृष्ण कभी वृन्दावन नहीं त्यागते, अतः उनके जितने भी रूप अन्यत्र पाये जाते हैं वे उनके विस्तार हैं। वासुदेव कृष्ण के निकटतम अंश-विस्तार हैं, अतः वासुदेव कृष्ण से भिन्न नहीं है। अतः इस श्लोक में आगत वासुदेव शब्द का अर्थ बलदेव या बलराम माना जाना चाहिए क्योंकि वे समस्त अवतारों के उद्गम हैं और इस प्रकार वासुदेव के एकमात्र उद्गम हैं। भगवान के निकटतम अंशों को स्वांश[2] कहते हैं और अन्य प्रकार के भी अंश हैं, जो विभिन्नांश[3] कहलाते हैं।

पाण्डुपुत्रों में अर्जुन धनञ्जय नाम से विख्यात है। वह समस्त पुरुषों में श्रेष्ठतम है, अतः कृष्णस्वरूप है। मुनियों अर्थात वैदिक ज्ञान में पटु विद्वानों में व्यास सबसे बड़े हैं, क्योंकि उन्होंने कलियुग में लोगों को समझाने के लिए वैदिक ज्ञान का अनेक प्रकार से प्रस्तुत किया। और व्यास को कृष्ण के एक अवतार भी माने जाते हैं। अतः वे कृष्णस्वरूप हैं। कविगण किसी विषय पर गंभीरता से विचार करने में होते हैं। कवियों में उशना अर्थात शुक्राचार्य असुरों के गुरु थे, वे अत्यधिक बुद्धिमान तथा दूरदर्शी राजनेता थे। इस प्रकार शुक्राचार्य कृष्ण के ऐश्वर्य के दूसरे स्वरूप हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वृष्णीनाम्-वृष्णि कुल में; वासुदेवः-द्वारकावासी कृष्ण; अस्मि-हूँ; पाण्डवानाम्-पाण्डवों में; धनञ्जय-अर्जुन; मुनीनाम्-मुनियों में; अपि-भी; अहम्-मैं हूँ; व्यासः-व्यासदेव, समस्त वेदों के संकलकर्ता; कवीनाम्-महान विचारकों में; उशना-उशना, शुक्राचार्य; कविः-विचारक।
  2. व्यक्तिगत या स्वकीय अंश
  3. पृथकीकृत अंश

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