श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 638

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-2


अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा
गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला: ।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥2॥[1]

भावार्थ

इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर तथा नीचे फैली हुई हैं और प्रकृति के तीन गुणों द्वारा पोषित हैं। इसकी टहनियाँ इन्द्रियाँ विषय हैं। इस वृक्ष की जड़े नीचे की ओर भी जाती हैं, जो मानव समाज के सकामकर्मों से बंधी हुई हैं।

तात्पर्य

अस्वत्थ वृक्ष की यहाँ और भी व्याख्या की गई है। इसकी शाखाएँ चतुर्दिक फैली हुई हैं। निचले भाग में जीवों की विभिन्न योनियाँ हैं। यथा मनुष्य, पशु, घोडे़, गाय, कुत्ते, बिल्लियाँ आदि। ये सभी वृक्ष की शाखाओं के निचले भाग में स्थित हैं लेकिन ऊपरी भाग में जीवों की उच्च योनियाँ हैं- यथा देव, गन्धर्व तथा अन्य बहुत सी उच्चतर योनियाँ। जिस प्रकार सामान्य वृक्ष का पोषण जल से होता है, उसी प्रकार यह वृक्ष प्रकृति के तीन गुणों द्वारा पोषित है। कभी-कभी हम देखते हैं कि जलाभाव से कोई-कोई भूखण्ड वीराना हो जाता है, तो कोई खण्ड लहलहाता है इसी प्रकार जहाँ प्रकृति के विशेष गुणों का आनुपातिक आधिक्य होता है, वहाँ उसी के अनुरूप जीवों की योनियों प्रकट होती हैं।

वृक्ष की टहनियाँ इन्द्रिय विषय हैं। विभिन्न गुणों के विकास से हम विभिन्न प्रकार की इन्द्रियों का विकास करते हैं और इन इन्द्रियों के द्वारा हम विभिन्न इन्द्रिय विषयों का भोग करते हैं। शाखाओं के सिरे इन्द्रियाँ हैं- यथा कान, नाक, आँख आदि, जो विभिन्न इन्द्रिय विषयों के भोग में आशक्त हैं। टहनियाँ शब्द, रूप, स्पर्श आदि इन्द्रिय विषय हैं। सहायक जड़े राग तथा द्वेष हैं, जो विभिन्न प्रकार के कष्ट तथा इन्द्रिय भोग के विभिन्न रूप हैं। धर्म-अधर्म की प्रवृत्तियाँ इन्हीं गौण जड़ों से उत्पन्न हुई मानी जाती हैं, जो चारों दिशाओं में फैली हुई हैं। वास्तविक जड़ तो ब्रह्मलोक में हैं, किन्तु अन्य जडे़ मर्त्यलोक में हैं। जब मनुष्य उच्च लोकों में पुन्य कर्मां का फल भोग चुकता है, तो वह इस धारा पर उतरता है और उन्नति के लिये सकाम कर्मां का नवीनीकरण करता है। यह मनुष्य लोक कर्मक्षेत्र माना जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अधः= नीचे; च= तथा; ऊर्ध्‍वम् = ऊपर की ओर; प्रसृताः= फैली हुई; तस्य= उसकी; शाखाः= शाखाएँ; गुण= प्रकृति के गुणों द्वारा; प्रवृद्धाः= विकसित; विषय= इन्द्रियविषय; प्रवालाः= टहनियाँ; अधः= नीचे की ओर; च= तथा; मूलानि= जड़ों को; अनुसन्ततानि = विस्तृत; कर्म= कर्म करने के लिए; अनुबन्धीनि= बँधा; मनुष्य-लोके= मानव समाज के जगत् में।

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