श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 426

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-1


श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥[1]

भावार्थ

श्रीभगवान ने कहा– हे महाबाहु अर्जुन! और आगे सुनो। चूँकि तुम मेरे प्रिय सखा हो, अतः मैं तुम्हारे लाभ के लिए ऐसा ज्ञान प्रदान करूँगा, जो अभी तक मेरे द्वारा बताये गये ज्ञान से श्रेष्ठ होगा।

तात्पर्य

पराशर मुनि ने भगवान शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है– जो पूर्ण रूप से षड्ऐश्वर्यों– सम्पूर्ण शक्ति, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण धन, सम्पूर्ण ज्ञान, सम्पूर्ण सौन्दर्य तथा सम्पूर्ण त्याग– से युक्त है, वह भगवान है। जब कृष्ण इस धराधाम में थे, तो उन्होंने छहों ऐश्वर्यों का प्रदर्शन किया था, फलतः पराशर जैसे मुनियों ने कृष्ण को भगवान रूप में स्वीकार किया है। अब अर्जुन को कृष्ण अपने ऐश्वर्यों तथा कार्य का और भी गुह्य ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। इसके पूर्व सातवें अध्याय से प्रारम्भ करके वे अपनी शक्तियों तथा उनके कार्य करने के विषय में बता चुके हैं। अब इस अध्याय में वे अपने ऐश्वर्यों का वर्णन कर रहे हैं। पिछले अध्याय में उन्होंने दृढ़ विश्वास के साथ भक्ति स्थापित करने में अपनी विभिन्न शक्तियों के योगदान की चर्चा स्पष्टतया की है। इस अध्याय में पुनः वे अर्जुन को अपनी सृष्टियों तथा विभिन्न ऐश्वर्यों के विषय में बता रहे हैं।

ज्यों-ज्यों भगवान के विषय में कोई सुनता है, त्यों-त्यों वह भक्ति में रमता जाता है। मनुष्य को चाहिए कि भक्तों की संगति में भगवान के विषय में सदा श्रवण करे, इससे उसकी भक्ति बढ़ेगी। भक्तों के समाज में ऐसी चर्चाएँ केवल उन लोगों के बीच हो सकती हैं, जो सचमुच कृष्णभावनामृत के इच्छुक हों। ऐसी चर्चाओं में अन्य लोग भाग नहीं ले सकते। भगवान अर्जुन से स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि चूँकि तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो, अतः तुम्हारे लाभ के लिए ऐसी बातें कह रहा हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीभगवान् उवाच–भगवान् ने कहा; भूयः–फिर; एव–निश्चय ही; महा-बाहो–हे बलिष्ट भुजाओं वाले; शृणु–सुनो; मे–मेरा; परमम्–परं; वचः–उपदेश; यत्–जो; ते–तुमको; अहम्–मैं; प्रीयमाणाय–अपना प्रिय मानकर; वक्ष्यामि–कहता हूँ; हित-काम्यया–तुम्हारे हित (लाभ) के लिए।

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