श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 503

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-37

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणोंऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्।।[1]

भावार्थ

हे महात्मा! आप ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं, आप आदि स्रष्टा हैं। तो फिर आपको सादर नमस्कार क्यों न करें? हे अनन्त, हे देवेश, हे जगन्निवास! आप परमस्त्रोत, अक्षर, कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत् के परे हैं।

तात्पर्य

अर्जुन इस प्रकार नमस्कार करके सूचित करता है कि कृष्ण सबों के पूजनीय हैं। वे सर्वव्यापी हैं और प्रत्येक जीव की आत्मा हैं। अर्जुन कृष्ण को महात्मा कहकर सम्बोधित करता है, जिसका अर्थ है कि वे उदार तथा अनन्त हैं। अनन्त सूचित करता है कि ऐसा कुछ भी नहीं जो भगवान् की शक्ति और प्रभाव से आच्छादितन हो और देवेश का अर्थ है कि वे समस्त देवताओं के नियन्ता हैं और उन सबसे ऊपर हैं। वे समग्र विश्व के आश्रय हैं। अर्जुन ने भी सोचा कि यह सर्वथा उपयुक्त है कि सारे सिद्ध तथा शक्तिशाली देवता भगवान् को नमस्कार करते हैं, क्योंकि उनसे बढ़कर कोई नहीं है। अर्जुन विशेष रूप से उल्लेख करता है कि कृष्ण ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं, क्योंकि ब्रह्मा उन्हीं के द्वारा उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्मा का जन्म कृष्ण के पूर्ण विस्तार गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से निकले कमलनाल से हुआ। अतः ब्रह्मा तथा ब्रह्मा से उत्पन्न शिव एवं अन्य सारे देवताओं को चाहिए कि उन्हें नमस्कार करें। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि शिव, ब्रह्मा तथा इन जैसे अन्यदेवता भगवान् का आदर करते हैं। अक्षरम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह जगत् विनाशशील है, किन्तु भगवान् इस जगत् से परे हैं। वे समस्त कारणों के कारण हैं, अतएव वे इस भौतिक प्रकृति के तथा इस दृश्यजगत के समस्त बद्धजीवों से श्रेष्ठ हैं। इसलिए वे परमेश्वर हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कस्मात् – क्यों; च – भी; ते – आपको; न – नहीं; नमेरन् – नमस्कार करें; महा-आत्मन् – हे महापुरुष; गरीयसे – श्रेष्ठतर लोग; ब्रह्मणः – ब्रह्मा की अपेक्षा; अपि – यद्यपि; आदि-कर्त्रे – परम स्रष्टा को; अनन्त – हे अनन्त; देव-ईश– हे इशों के ईश; जगत्-निवास – हे जगत के आश्रय; त्वम् – आप हैं; अक्षरम् –अविनाशी; सत्-असत् – कार्य तथा कारण; तत्-परम् – दिव्य; यत् – क्योंकि।

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