श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 630

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति के तीन गुण
अध्याय 14 : श्लोक-22-25


प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥22॥
उदासीनवदासीनो गुणैर्या न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेग्ङते ॥23॥
समदु:खसुख: स्वस्थ: समलोष्टाश्मकाञ्चन: ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति: ॥24॥
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो: ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते ॥25॥[1]

भावार्थ

भगवान ने कहा- हे पाण्डुपुत्र! जो प्रकाश, आसक्ति तथा मोह के उपस्थित होने पर न तो उनसे घृणा करता है और न लिप्त हो जाने पर उनकी इच्छा करता है, जो भौतिक गुणों की इन समस्त प्रतिक्रियाओं से निश्चल तथा अविचलित रहता है और यह जानकर कि केवल गुण ही क्रियाशील हैं, उदाशीन तथा दिव्य बना रहता है, जो अपने आप में स्थित है और सुख तथा दुख को एक समान मानता है, जो मिट्टी के ढेले, पत्थर एवं स्वर्ण के टुकड़ों को समान दृष्टि से देखता है, जो अनुकूल तथा प्रतिकूल के प्रति समान बना रहता है, जो धीर है और प्रशंसा तथा बुराई, मान तथा अपमान में समान भाव से रहता है, जो शत्रु तथा मित्र के साथ समान व्यवहार करता है और जिसने सारे भौतिक कार्यों का परित्याग कर दिया है, ऐसे व्यक्ति को प्रकृति के गुणों से अतीत कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीभगवान् उवाच= भगवान् ने कहा; प्रकाशम्= प्रकाश; च= तथा; प्रवृत्तिम्= आसक्ति; च= तथा; मोहम्= मोह; एव च= भी; पाण्डव= हे पाण्डुपुत्र; न द्वेष्टि= घृणा नहीं करता; सम्प्रवृत्तानि= यद्यपि विकसित न होने पर; न निवृत्तानि= न ही विकास के रुकने पर; काड्क्षति= चाहता है; उदासीन वत्= निरपेक्ष की भाँति; आसीनः= स्थित; गुणैः= गुणों के द्वारा; यः= जो; अवतिष्ठति= रहा आता है; न= कभी नहीं; इंगते= हिलता डुलता है; सम= समान; दुःखः= दुख; सुखः= तथा सुख में; स्व-स्थः= अपने में स्थित; सम= समान रूप से; लोष्ट= मिट्टी का ढेला; अश्म= पत्थर; काच्चनः= सोना; तुल्यः= समान; तुल्यः= समान; मित्र= मित्र; अरि= तथा शत्रु के; पक्षयोः= पक्षों या दलों को; सर्व= सबों का; आरम्भ= प्रयत्न, उद्यम; परित्यागी= त्याग करने वाला; गुण= अतीतः= प्रकृति के गुणों से परे; सः= वह; उच्यते= कहा जाता है।

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