श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 569

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-8-12


आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए पवित्रता (शौचम्) अनिवार्य है। पवित्रता दो प्रकार की होती है- आन्तरिक तथा बाह्य। बाह्य पवित्रता का अर्थ है स्नान करना, लेकिन आन्तरिक पवित्रता के लिए निरन्तर कृष्ण का चिन्तन तथा हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करना होता है। इस विधि में मन में से पूर्व कर्म की संचित धूलि हट जाती है।

दृढ़ता (स्थैर्यम्) का अर्थ है कि आध्यात्मिक जीवन में उन्नति करने के लिए मनुष्य दृढ़संकल्प हो। ऐसे संकल्प के बिना मनुष्य ठोस प्रगति नहीं कर सकता। आत्मसंयम (आत्म-विनिग्रहः) का अर्थ है कि आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर जो भी बाधक हो, उसे स्वीकार न करना। मनुष्य को इसका अभ्यस्त बन कर ऐसी किसी भी वस्तु को त्याग देना चाहिए, जो आध्यात्मिक उन्नति के पथ के प्रतिकूल हो। यह असली वैराग्य है। इन्द्रियाँ इतनी प्रबल हैं कि वे सदैव इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्सुक रहती हैं। अनावश्यक माँगों की पूर्ति नहीं करनी चाहिए। इन्द्रियाँ की उतनी ही तृप्ति की जानी चाहिए, जिससे अध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने में अपने कर्तव्य की पूर्ति होती हो। सबसे महत्त्वपूर्ण, किन्तु वश में न आने वाली इन्द्रिय जीभ है। यदि जीभ पर संयम कर लिया गया तो समझो अन्य सारी इन्द्रियाँ वशीभूत हो गईं। जीभ का कार्य है, स्वाद ग्रहण करना तथा उच्चारण करना।

अतएव नियमित रूप से जीभ को कृष्णार्पित भोग के उच्छिष्ट का स्वाद लेने में तथा हरे कृष्ण का कीर्तन करने में प्रयुक्त करना चाहिए। जहाँ तक नेत्रों का सम्बन्ध है, उन्हें कृष्ण के सुन्दर रूप के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं देखने देना चाहिए। इससे नेत्र वश में होंगे। इसी प्रकार कानों को कृष्ण के विषय में श्रवण करने में लगाना चाहिए, और नाक को कृष्णार्पित फूलों को सूँघने में लगाना चाहिए। यह भक्ति की विधि है, और यहाँ यह समझना होगा कि भगवद्गीता केवल भक्ति के विज्ञान का प्रतिपादन करती है। भक्ति ही प्रमुख एवं एकमात्र लक्ष्य है। भगवद्गीता के बुद्धिहीन भाष्यकर पाठक के ध्यान को अन्य विषयों की ओर मोड़ना चाहते हैं, लेकिन भगवद्गीता में भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई भी विषय नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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