श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 568

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-8-12


तात्पर्य

अहिंसा का सामान्य अर्थ वध न करना या शरीर को नष्ट न करना लिया जाता है, लेकिन अहिंसा का वास्तविक अर्थ है, अन्यों को विपत्ति में न डालना। देहात्मबुद्धि के कारण सामान्य लोग अज्ञान द्वारा ग्रस्त रहते हैं और निरन्तर भौतिक कष्ट भोगते रहते हैं। अतएव जब तक कोई लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान की ओर ऊपर नहीं उठाता, तब तक वह हिंसा करता रहता होता है। व्यक्ति को लोगों में वास्तविक ज्ञान वितरित करने का भरसक प्रयास करना चाहिए जिससे वे प्रबुद्ध हों और इस भवबन्धन से छूट सकें। यही अहिंसा है।

सहिष्णुता (क्षान्तिः) का अर्थ है कि मनुष्य अन्यों द्वारा किये गये अपमान तथा तिरस्कार को सहे। जो आध्यात्मिक ज्ञान की उन्नति करने में लगा रहता है, उसे अन्यों के तिरस्कार तथा अपमान सहने पड़ते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यह भौतिक स्वभाव है। यहाँ तक कि बालक प्रह्लाद को भी जो पाँच वर्ष के थे और जो अध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में लगे थे संकट का सामना करना पड़ा था, जब उनका पिता उनकी भक्ति का विरोधी बन गया। उनके पिता ने उन्हें मारने के अनेक प्रयत्न किए, किन्तु प्रह्लाद ने सहन कर लिया। अतएव आध्यात्मिक ज्ञान की उन्नति करते हुए अनेक अवरोध आ सकते हैं, लेकिन हमें सहिष्णु बन कर संकल्प पूर्वक प्रगति करते रहना चाहिए।

सरलता (आर्जवम्) का अर्थ है कि बिना किसी कूटनीति के मनुष्य इतना सरल हो कि अपने शत्रु तक से वास्तविक सत्य का उद्घाटन कर सके। जहाँ तक गुरु बनाने का प्रश्न है, (आचार्योपासनम्), आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करने के लिए यह अत्यावश्यक है, क्योंकि बिना प्रामाणिक गुरु के यह सम्भव नहीं है। मनुष्य को चाहिए कि विनम्रतापूर्वक गुरु के पास जाये और उसे अपनी समस्त सेवाएँ अर्पित करें, जिससे वह शिष्य को अपना आर्शीवाद दे सकें। चूँकि प्रामाणिक गुरु कृष्ण का प्रतिनिधि होता है, अतएव यदि वह शिष्य को आशीर्वाद देता है, तो शिष्य तुरन्त ही प्रगति करने लगता है, भले ही वह विधि-विधानों का पालन न करता रहा हो। अथवा जो बिना किसी स्वार्थ के अपने गुरु की सेवा करता है, उसके लिए सारे यम-नियम सरल बन जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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