गीता कर्म योग 9

इसी तरह महाभारत में भी योग और ज्ञान दोनों शब्दों के अर्थ के विषय में स्पष्ट लिखा है कि

प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्न्यासलक्षणम्[1]

अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्न्यास या निवृत्ति–मार्ग है। शांतिपर्व के अंत में नारायणीयोपाख्यान में 'सांख्य' और 'योग' शब्द तो इसी अर्थ में अनेक बार आए हैं और इसका भी वर्णन किया गया है कि ये दोनों मार्ग सृष्टि के आरंभ में क्यों और कैसे निर्माण किए गए।[2] पहले प्रकरण में महाभारत से जो वचन उद्घृत किए गए हैं उनसे यह स्पष्टतया मालूम हो गया है कि यही नारायणीय अथवा भागवत धर्म भगवद्गीता का प्रतिपाद्य तथा प्रधान विषय है। इसलिए कहना पड़ता है कि सांख्य और योग शब्दों का जो प्राचीन और पारिभाषिक अर्थ सांख्य=निवृत्ति; योग=प्रवृत्ति नारायणीय धर्म में दिया गया है, वही अर्थ गीता में भी विवक्षित है। यदि इसमें किसी को कोई शंका हो तो गीता में दी हुई इस व्याख्या से 'समत्वं योग उच्यते' या 'योगः कर्मसु कौशलम्' तथा उपर्युक्त 'कर्मयोगेण योगिनाम्' इत्यादि गीता के वचनों से उस शंका का समाधान हो सकता है। इसलिए अब यह निर्विवाद सिद्ध है कि गीता में 'योग शब्द प्रवृत्ति मार्ग अर्थात 'कर्मयोग' के अर्थ ही में प्रयुक्त हुआ है। वैदिक धर्म ग्रंथों की कौन कहे; यह 'योग' शब्द संस्कृत और पाली भाषाओं के बौद्ध धर्म ग्रंथों में भी इसी अर्थ में प्रयुक्त है। उदाहरणार्थ, संवत 335 के लगभग लिखे गए मिलिंदप्रश्न नामक पाली–ग्रंथ में 'पुब्बयोगो' (पूर्वयोग) शब्द आया है और वहीं उसका अर्थ 'पुब्बकम्म' (पूर्वकर्म) किया गया है।[3] इसी तरह अश्वघोष कविकृत, जो शालिवाहन शक के आरंभ में हो गया है– 'बुद्धचरित' नामक संस्कृत काव्य के पहले सर्ग के पचासवें श्लोक में यह वर्णन हैः–

आचार्यकं योगविधौ द्विजानामप्राप्तमन्यैर्जनको जगाम।

अर्थात 'ब्राह्मणों को योग–विधि की शिक्षा देने में राजा जनक आचार्य (उपदेष्टा) हो गए, इनके पहले यह आचार्यत्व किसी को भी प्राप्त नहीं हुआ था।' यहाँ पर योगविधि का अर्थ निष्काम कर्मयोग की विधि ही समझना चाहिए; क्योंकि गीता आदि अनेक ग्रंथ मुक्त कंठ से कह रहे हैं कि जनक जी के बर्ताव का यही रहस्य है और अश्वघोष ने अपने बुद्धचरित[4] में यह दिखलाने के लिए कि 'गृहस्थाश्रम में रहकर भी मोक्ष की प्राप्ति कैसे की जा सकती है' जनक का उदाहरण दिया है। जनक के दिखलाए हुए मार्ग का नाम 'योग' है और यह बात बौद्धधर्म ग्रंथों से भी सिद्ध होती है, इसलिए गीता के 'योग' शब्द का भी यही अर्थ लगाना चाहिए; क्योंकि गीता के कथनानुसार[5] जनक का ही मार्ग उसमें प्रतिपादित किया गया है। सांख्य और योगमार्ग के विषय में अधिक विचार आगे किया जाएगा। प्रस्तुत प्रश्न यही है कि गीता में 'योग' शब्द का उपयोग किस अर्थ में किया गया है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत आश्वमेधिक पर्व,
  2. महाभारत शान्ति पर्व, 240 और 348
  3. मिलिन्द प्रश्न. 1.4
  4. बुद्धचरित 9.19 और 20
  5. गीता 3.20

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