गीता कर्म योग 4

नित्य कर्म कौन–से हैं, नैमित्तिक कौन–से हैं और काम तथा निषिद्ध कर्म कौन से हैं, ये सब बातें धर्मशास्त्रों में निश्चित कर दी गईं हैं। यदि कोई किसी धर्मशास्त्री से पूछे कि अमुक कर्म पुरायप्रद है या पापकारक, तो वह सबसे पहले इस बात का विचार करेगा कि शास्त्रों की आज्ञा के अनुसार वह कर्म यज्ञार्थ है या पुरुषार्थ, नित्य है या नैमित्तिक अथवा काम्य है या निषिद्ध। और इन बातों पर विचार करके फिर वह अपना निर्णय करेगा। परन्तु भगवद्गीता की दृष्टि इससे भी अधिक व्यापक और विस्तीर्ण है। मान लीजिए कि अमुक एक कर्म शास्त्रों में निषिद्ध नहीं माना गया है, अथवा वह विहित्त कर्म ही कहा गया है; जैसे युद्ध के समय क्षात्रधर्म ही अर्जुन के लिए विहित्त कर्म था, तो इतने से ही यह सिद्ध नहीं होता कि हमें वह कर्म हमेशा करते ही रहना चाहिए, अथवा उस कर्म का करना हमेशा श्रेयस्कर ही होगा। यह बात पिछले प्रकरण में कही गई है कि कहीं कहीं तो शास्त्र की आज्ञा भी परस्पर विरुद्ध होती है। ऐसे समय में मनुष्य को किस मार्ग को स्वीकार करना चाहिए?

इस बात का निर्णय करने के लिए कोई युक्ति है या नहीं? यदि है, तो वह कौन सी है? बस यही गीता का मुख्य विषय है। इस विषय में कर्म के उपर्युक्त अनेक भेदों पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं। यज्ञ–याग आदि वैदिक कर्मों तथा चातुर्वण्य के कर्मों के विषय में मीमांसकों ने जो सिद्धान्त दिए हैं, वे गीता में प्रतिपादित कर्मयोग से कहाँ तक मिलते हैं, यह दिखाने के लिए प्रसंगानुसार गीता में मीमांसकों के कथन का भी कुछ विचार किया गया है और अंतिम अध्याय[1] में इस पर भी विचार किया गया है कि ज्ञानी पुरुष को यज्ञ–याग आदि कर्म करना चाहिए या नहीं। परन्तु गीता के मुख्य प्रतिपाद्य विषय का क्षेत्र इससे भी व्यापक है, इसलिए गीता में ‘कर्म’ शब्द का केवल ‘श्रौत अथवा स्मार्त्त कर्म’ इतना ही संकुचित अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए, किन्तु उससे भी अधिक व्यापक रूप में लेना चाहिए।

सारांश, मनुष्य जो कुछ करता है – जैसे खाना, पीना, खेलना, रहना, उठना–बैठना, श्वासोच्छ्वास करना, हँसना, रोना, सूँघना, देखना, बोलना, सुनना, चलना, लेना–देना, सोना, जागना, मारना, लड़ना, मनन और ध्यान करना, आज्ञा और निषेध करना, दान देना, यज्ञ–याग करना, खेती और व्यापार–धंधा करना, इच्छा करना, निश्चय करना, चुप रहना इत्यादि इत्यादि – ये सब भगवद्गीता के अनुसार ‘कर्म’ ही हैं; चाहे वे कर्म कायिक हों, वाचिक हों अथवा मानसिक हों[2] और तो क्या, जीना–मरना भी कर्म ही तो हैं, और मौक़ा आने पर यह भी विचार करना पड़ता है कि 'जीना या मरना' इन दो कर्मों में से किसको स्वीकार किया जाए? इस विचार के उपस्थित होने पर कर्म शब्द का अर्थ 'कर्त्तव्य कर्म' अथवा 'विहित्त कर्म' हो जाता है।[3] मनुष्य के कर्म के विषय में यहाँ तक विचार हो चुका। अब इसके आगे बढ़कर सब चर–अचर सृष्टि के भी एवं अचेतन वस्तु के भी व्यापार में ‘कर्म’ शब्द का ही उपयोग होता है। इस विषय का विचार आगे कर्म–विपाक–प्रक्रिया में किया जाएगा।




टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता' 18.9
  2. गीता. 5.8, 9
  3. गीता, 4.19

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