गीता कर्म योग 16

धर्म–अधर्म के उपर्युक्त निरूपण को सुनकर कोई यह प्रश्न करे कि यदि तुम्हें 'समाज धारणा' और दूसरे प्रकरण के सत्यानृत विवेक में कथित 'सर्वभूतहित'; ये दोनों ही तत्त्व मान्य हैं तो तुम्हारी दृष्टि में और आधिभौतिक दृष्टि में भेद ही क्या है? क्योंकि ये दोनों ही तत्त्व बाह्यतः प्रत्यक्ष दिखने वाले और आधिभौतिक ही हैं। इस प्रश्न का विस्तृत विचार अगले प्रकरणों में किया गया है। यहाँ इतना ही कहना बस है कि, यद्यपि हमको यह तत्त्व मान्य है कि समाज–धारणा ही धर्म का मुख्य बाह्य उपयोग है, तथापि हमारे मत की विशेषता यह है कि वैदिक अथवा अन्य सब धर्मों का जो परम उद्देश्य आत्म–कल्याण या मोक्ष है, उस पर भी हमारी दृष्टि बनी है। समाज–धारणा को ही ले लीजिए, चाहे सर्व–भूतहित ही को; यदि ये बाह्योपयोगी तत्त्व हमारे आत्म–कल्याण के मार्ग में बाधा डालें तो हमें इनकी ज़रूरत नहीं। हमारे आयुर्वेद ग्रंथ यदि यह प्रतिपादन करते हैं कि वैद्यकशास्त्र भी शरीर रक्षा के द्वारा मोक्ष प्रप्ति का साधन होने के कारण संग्रहणीय है; तो यह कदापि संभव नहीं कि जिस शास्त्र में इस विषय का विचार किया गया है कि सांसारिक व्यवहार किस प्रकार करना चाहिए, उस कर्मयोग शास्त्र को हमारे शास्त्रकार आध्यात्मिक मोक्षज्ञान से अलग बतलाएं।

इसलिए हम समझते हैं कि जो कर्म हमारे मोक्ष अथवा हमारी आध्यात्मिक उन्नति के अनुकूल हों वही पुण्य है, वही धर्म है और वही शुभ कर्म है; और जो कर्म उसके प्रतिकूल हों वही पाप है, अधर्म है और अशुभ है। यही कारण है कि हम 'कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य', 'पाप–पुण्य', 'कार्य–अकार्य' शब्दों के बदले 'धर्म' और 'अधर्म' शब्दों का ही (यद्यपि वे दो अर्थ के, अतएव कुछ संभव हों तो भी) अधिक उपयोग करते हैं। यद्यपि बाह्य सृष्टि के व्यावहारिक कर्मों अथवा व्यापारों का विचार करना ही प्रधान विषय हो, तो भी उक्त कर्मों के बाह्य परिणाम के विचार के साथ ही यह विचार भी हम लोग हमेशा किया करते हैं कि ये व्यापार हमारी आत्मा के कल्याण के अनुकूल हैं या प्रतिकूल। यदि आधिभौतिक–वादी से कोई यह प्रश्न करे कि 'मैं अपना हित छोड़कर लोगों का हित क्यों करूं?' तो वह इसके सिवाय और क्या समाधान–कारक उत्तर दे सकता है कि 'यह तो सामान्यतः मनुष्य स्वभाव ही है।' हमारे शास्त्रकारों की दृष्टि इसके परे पहुँची हुई है और उस व्यापक आध्यात्मिक दृष्टि से ही महाभारत में कर्मयोग–शास्त्र का विचार किया गया है एवं श्रीमद्भगवदगीता में वेदान्त का निरूपण भी इतने के लिए ही किया गया है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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