गीता कर्म योग 13

उसने निश्चित किया है कि किसी भी शास्त्र या विषय का विवेचन करने के लिए अन्य मार्गों की अपेक्षा यही आधिभौतिक मार्ग का अवलम्ब करना चाहिए। इस मार्ग का अवलम्ब करके इस पंडित ने इतिहास की आलोचना की और सब व्यवहार–शास्त्रों का यही मथितार्थ निकाला है कि इस संसार में प्रत्येक मनुष्य का परम धर्म यही है कि वह समस्त मानव जाति पर प्रेम रख कर सब लोगों के कल्याण के लिए सदैव प्रयत्न करता रहे। मिल और स्पेन्सर आदि अंग्रेज़ पंडित इसी मत के पुरस्कर्ता कहे जा सकते हैं। इसके उलटा कान्ट, हेगेल, शोपेनहर आदि जर्मन तत्त्वज्ञानी पुरुषों ने नीतिशास्त्र के विवेचन के लिए इस आधिभौतिक पद्धति को अपूर्ण माना है। हमारे वेदान्तियों की नई आध्यात्मिक दृष्टि से ही नीति के समर्थन करने के मार्ग को आज–कल उन्होंने यूरोप में फिर भी स्थापित किया है।

एक ही अर्थ विवक्षित होने पर भी 'अच्छा और बुरा' के पर्यायवाची भिन्न भिन्न शब्दों का, जैसे 'कार्य–अकार्य' और 'धर्म्य–अधर्म्य' का उपयोग क्यों होने लगा? इसका कारण यही है कि विषय प्रतिपादन का मार्ग या दृष्टि प्रत्येक की भिन्न भिन्न होती है। अर्जुन के सामने यह प्रश्न था कि जिस युद्ध में भीष्म–द्रोण आदि का वध करना पड़ेगा, उसमें शामिल होना उचित है या नहीं।[1] यदि इसी प्रश्न का उत्तर देने का मौक़ा किसी आधिभौतिक पंडित पर आता, तो वह पहले इस बात का विचार करता कि भारतीय युद्ध से स्वयं अर्जुन को दृश्य हानि–लाभ कितना होगा और कुल समाज पर उसका क्या परिणाम होगा? यह विचार करके तब उसने निश्चय किया होता कि युद्ध करना न्याय है या अन्याय। इसका कारण यह है कि किसी कर्म के अच्छेपन या बुरेपन का निर्णय करते समय ये आधिभौतिक पंडित यही सोचा करते हैं कि इस संसार में उस कर्म का आधिभौतिक परिणाम अर्थात प्रत्यक्ष बाह्य परिणाम क्या हुआ या होगा – ये लोग इस आधिभौतिक कसौटी के सिवाय और किसी साधन या कसौटी को नहीं मानते। परन्तु ऐसे उत्तर से अर्जुन का समाधान होना संभव नहीं था।

उसकी दृष्टि इससे भी अधिक व्यापक थी। उसे केवल अपने सांसारिक हित का विचार नहीं करना था; किन्तु उसे पारलौकिक दृष्टि से यह भी विचार कर लेना था कि इस युद्ध का परिणाम मेरे आत्मा पर श्रेयस्कर होगा या नहीं। उसे ऐसी बातों पर कुछ भी शंका नहीं थी कि युद्ध में भीष्म, द्रोण आदि का वध होने पर तथा राज्य मिलने पर मुझे ऐच्छिक सुख मिलेगा या नहीं; और मेरा अधिकार लोगों को दुर्योधन से अधिक सुखदायक होगा या नहीं। उसे यही देखना था कि मैं जो कर रहा हूँ वह 'धर्म्य' है या 'अधर्म्य', अथवा 'पुण्य' है या 'पाप'; और गीता का विवेचन भी इसी दृष्टि से किया गया है। केवल गीता में ही नहीं; किन्तु कई स्थानों पर महाभारत में भी कर्म–अकर्म का जो विवेचन है वह पारलौकिक अर्थात अध्यात्म–दृष्टि से ही किया गया है; और वहाँ किसी भी कर्म का अच्छापन या बुरापन दिखलाने के लिए प्रायः सर्वत्र 'धर्म' और 'अधर्म' दो ही शब्दों का उपयोग किया गया है। परन्तु 'धर्म' और उसका प्रतियोगी 'अधर्म'; ये दोनों शब्द अपने व्यापक अर्थ के कारण कभी कभी भ्रम उत्पन्न कर दिया करते हैं; इसलिए यहाँ पर इस बात की कुछ अधिक मीमांसा करना आवश्यक है कि कर्मयोग–शास्त्र में इन शब्दों का उपयोग मुख्यतः किस अर्थ में किया जाता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 2.7

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