गीता कर्म योग 18

इसलिए महाभारत[1] में एवं स्मृति ग्रंथों में 'आचारप्रभवो धर्मः' अथवा 'आचारः परमोधर्मः'[2], अथवा धर्म का मूल बतलाते समय वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः[3] इत्यादि वचन कहे गए हैं। परन्तु कर्मयोग–शास्त्र में इतने से ही काम नहीं चल सकता; इस बात का भी पूरा और मार्मिक विचार करना पड़ता है कि उक्त आचार की प्रवृत्ति ही क्यों हुई – इस आचार की प्रवृत्ति ही का कारण क्या है।

'धर्म' शब्द की दूसरी एक और व्याख्या प्राचीन ग्रंथों में दी गई है; उसका भी यहाँ थोड़ा विचार करना चाहिए। यह व्याख्या मीमांसकों की है 'चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः।'[4] किसी अधिकारी पुरुष का यह कहना अथवा आज्ञा करना कि 'तू अमुक काम कर' अथवा 'मत कर', 'चोदना' यानि प्रेरणा है। जब तक इस बात का कोई प्रबंध नहीं कर दिया जाता, तब तक कोई भी काम किसी को भी करने की स्वतंत्रता होती है। इसका आशय यही है कि पहले पहल निबंध या प्रबंध के कारण धर्म निर्माण हुआ। धर्म की यह व्याख्या कुछ अंश में प्रसिद्ध अंग्रेज़ ग्रंथकार हॉब्स के मत से मिलती है। असभ्य तथा जंगली अवस्था में प्रत्येक मनुष्य का आचरण समय समय पर उत्पन्न होने वाली मनोवृत्तियों की प्रबलता के अनुसार हुआ करता है। परन्तु धीरे धीरे कुछ समय के बाद यह मालूम होने लगता है कि इस प्रकार का मनमाना बर्ताव श्रेयस्कर नहीं है; और यह विश्वास होने लगता है कि इंद्रियों के स्वाभाविक व्यापारों की कुछ मर्यादा निश्चित करके उसके अनुसार बर्ताव करने ही में सब लोगों का कल्याण है; तब प्रत्येक मनुष्य ऐसी मर्यादाओं का पालन कायदे के तौर पर करने लगता है जो शिष्टाचार से, अन्य रीति से सुदृढ़ हो जाया करती हैं। जब इस प्रकार की मर्यादाओं की संख्या बहुत बढ़ जाती है तब उन्हीं का एक शास्त्र बन जाता है।

पूर्व काल में विवाह–व्यवस्था का प्रचार नहीं था। पहले पहल उसे श्वेतकेतु ने चलाया और शुक्राचार्य ने मदिरापान को निषिद्ध ठहराया। यह न देखकर, कि इन मर्यादाओं को नियुक्त करने में श्वेतकेतु अथवा शुक्राचार्य का क्या हेतु था, केवल इसी बात पी ध्यान देकर कि इन मर्यादाओं के निश्चित करने का काम या कर्त्तव्य इन लोगों को करना पड़ा, धर्म शब्द की 'चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः' व्याख्या बन गई है। धर्म भी हुआ तो पहले उसका महत्त्व किसी व्यक्ति के ध्यान में आता है और तभी उसकी प्रवृत्ति होती है। 'खाओ–पिओ, चैन करो' ये बातें किसी को सिखलाना नहीं पड़ती; क्योंकि ये इंद्रियों के स्वाभाविक धर्म ही हैं। मनु जी ने जो कहा है कि 'न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने'[5]– अर्थात् मांस भक्षण करना अथवा मद्यपान और मैथुन करना कोई सृष्टिकर्म विरुद्ध दोष नहीं है, उसका तात्पर्य भी यही है। ये सब बातें मनुष्य के लिए ही नहीं, किन्तु प्राणीमात्र के लिए स्वाभाविक हैं – 'प्रवृत्तिरेषा भूतानाम्।' समाज–धारणा के लिए अर्थात् सब लोगों के सुख के लिए इस स्वाभाविक आचरण का उचित प्रतिबंध करना ही धर्म है। महाभारत[6] में भी कहा गया हैः–

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
अर्थात 'आहार, निद्रा, भय और मैथुन, मनुष्यों और पशुओं के लिए एक ही समान स्वाभाविक हैं। मनुष्य और पशुओं में कुछ भेद है तो केवल धर्म का (अर्थात् इन स्वाभाविक वृत्तियों को मर्यादित करने का)। जिस मनुष्य में यह धर्म नहीं है, वह पशु के समान ही है!' आहारादि स्वाभाविक वृत्तियों को मर्यादित करने के विषय में भागवत का श्लोक पिछले प्रकरण में दिया गया है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, अनुशासन पर्व, 104.157
  2. मनुस्मृति, 1.108
  3. मनुस्मृति, 2.12
  4. जैमिनी सूत्र 1.1.2
  5. मनुस्मृति, 5.56
  6. महाभारत, शान्ति पर्व, 294.29

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