गीता कर्म योग 5

कर्म शब्द से भी अधिक भ्रमकारक शब्द 'योग' है।
आजकल इस शब्द का रूढ़ार्थ 'प्राणायाम आदि साधनों से चित्त–वृत्तियों या इन्द्रियों का निरोध करना', अथवा 'पातंजल सूत्रोक्त समाधि या ध्यानयोग' है। उपनिषदों में भी इसी अर्थ से इस शब्द का प्रयोग हुआ है।[1] परन्तु ध्यान में रखना चाहिए कि यह संकुचित अर्थ भगवद्गीता में विविक्षित नहीं है। 'योग' शब्द 'युज्' धातु से बना है जिसका अर्थ 'जोड़, मेल, मिलाप, एकता, एकत्र–अवस्थिति' इत्यादि होता है और ऐसी स्थिति की प्राप्ति के 'उपाय, साधन, युक्ति या कर्म' को भी योग कहते हैं। यही सब अर्थ अमरकोष में इस तरह से दिए हुए हैं-


योगः संहननोपाय ध्यानसंगति युक्तिषु।


फलित ज्योतिष में कोई ग्रह यदि इष्ट अथवा अनिष्ट हों तो उन ग्रहों का 'योग' इष्ट या अनिष्ट कहलाता है; और 'योगक्षेम' पद में 'योग' शब्द का अर्थ 'अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना' लिया गया है।[2] भारतीय युद्ध के समय द्रोणाचार्य को अजेय देखकर श्रीकृष्ण ने कहा है कि


एको हि योगोऽस्य भवेद्वधाय[3]
अर्थात; द्रोणाचार्य को जीतने का एक ही योग (साधन या युक्ति) है और आगे चलकर उन्होंने यह भी कहा है कि हमने पूर्वकाल में धर्म की रक्षा के लिए जरासंध आदि राजाओं को योग ही से कैसे मारा था। उद्योगपर्व[4] में कहा गया है कि जब भीष्म ने अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका को हरण किया तब अन्य राजा लोग 'योग योग' कहकर उनका पीछा करने लगे थे। महाभारत में 'योग' शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में अनेक स्थानों पर हुआ है। गीता में योग, योगी अथवा योग शब्द से बने हुए सामासिक शब्द लगभग अस्सी बार पाए गए हैं; परन्तु चार–पाँच स्थानों के सिवाय[5] योग शब्द से 'पातंजल योग' अर्थ कहीं भी अभिप्रेत नहीं है। सिर्फ़ 'युक्ति, साधन, कुशलता, उपाय, जोड़, मेल' यही अर्थ कुछ हेर फेर से सारी गीता में पाए जाते हैं अतएव हम कह सकते हैं कि गीता शास्त्र के व्यापक शब्दों में 'योग' भी एक शब्द है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कठोपनिषद. 9.11
  2. गीता, 9.22
  3. महाभारत. द्रोण पर्व, 181.31
  4. महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय 172
  5. गीता. 9.12 और 23

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