गीता कर्म योग 8

इसी तरह इस अध्याय[1] के अंत में अर्जुन को जो उपदेश दिया गया है कि तस्माद्योगी भवार्जुन, उसका अर्थ ऐसा नहीं हो सकता कि 'हे अर्जुन! तू पातंजल योग का अभ्यास करने वाला बन जा।' इसलिए उक्त उपदेश का अर्थ-
योगस्थः कुरु कर्माणि[2],

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्[3]

योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत[4]
इत्यादि वचनों के अर्थ के समान ही होना चाहिए।
अर्थात उसका यही अर्थ लेना उचित है कि 'हे अर्जुन! तू युक्ति से कर्म करने वाला योगी अर्थात् कर्मयोगी हो।' क्योंकि यह कहना ही संभव नहीं है कि 'तू पातंजल योग का आश्रय लेकर युद्ध के लिए तैयार रह।' इसके पहले ही साफ़ साफ़ कहा गया है कि 'कर्मयोगेण योगिनाम्'[5] अर्थात योगी पुरुष कर्म करने वाले होते हैं। महाभारत[6] के नारायणीय अथवा भागवत धर्म के विवेचन में भी कहा गया है कि इस धर्म के लोग अपने कर्मों का त्याग किए बिना ही युक्तिपूर्वक कर्म करके ही (सप्रयुक्तेन कर्मणा) परमेश्वर की प्राप्ति कर लेते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 'योगी' और 'कर्मयोगी' दोनों ही शब्द गीता में समानार्थक हैं और इनका अर्थ 'युक्ति से कर्म करने वाला' होता है तथापि बड़े भारी 'कर्मयोग' शब्द का प्रयोग करने के बदले गीता और महाभारत में छोटे से 'योग' शब्द का ही अधिक उपयोग किया गया है। 'मैंने तुम्हें जो यह योग बतलाया है इसी को पूर्वकाल में विवस्वान से कहा था[7]; और विवस्वान ने मनु को बतलाया था। परंतु उस योग के नष्ट हो जाने पर फिर वही योग आज तुझसे कहना पड़ा।' इस अवतरण में भगवान ने जो योग शब्द का तीन बार उच्चारण किया है उसमें पातंजल योग का विवक्षित होना नहीं पाया जाता है, किन्तु 'कर्म करने की किसी प्रकार की विशेष युक्ति, साधन या मार्ग' अर्थ ही लिया जा सकता है। इसी तरह जब संजय कृष्ण–अर्जुन संवाद को गीता में योग कहता है[8] तब भी यही अर्थ पाया जाता है। श्री शंकराचार्य स्वयं सन्न्यास मार्ग वाले थे; तो भी उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही वैदिक धर्म के दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाए हैं और योग शब्द का अर्थ श्री भगवान द्वारा की हुई व्याख्या के अनुसार कभी सम्यग्दर्शनोपाय कर्मानुष्ठानम्[9] और कभी 'योगः युक्तिः'[10] किया है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 9.49
  2. गीता 2.48
  3. गीता 2.50
  4. गीता 4.42
  5. गीता 3.3
  6. महाभारत शान्ति पर्व, 348.56
  7. गीता. 4.1
  8. गीता. 18.75
  9. गीता 4.42
  10. गीता 10.7

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