गीता कर्म योग 7

पहले सांख्यशास्त्र के अनुसार भगवान ने अर्जुन को यह समझा दिया कि युद्ध क्यों करना चाहिए; इसके बाद उन्होंने कहा कि 'अब हम तुम्हें योग के अनुसार उपपत्ति बतलाते हैं[1], और फिर इसका वर्णन किया है जो कि लोग हमेशा यज्ञ–यागादि काम्य कर्मों में ही निमग्न रहते हैं, उनकी बुद्धि फलाशा से कैसी व्यग्र हो जाती है।[2] इसके पश्चात् उन्होंने यह उपदेश दिया है कि 'बुद्धि को अव्यग्र स्थिर या शान्त रखकर आसक्ति को छोड़ दे, परन्तु कर्मों को छोड़ देने के आग्रह में न पड़' और योगस्थ होकर कर्मों का आचरण कर'।[3] यहीं पर योग शब्द का यह स्पष्ट अर्थ भी कह दिया है कि 'सिद्धि और असिद्धि दोनों में समबुद्धि रखने को योग कहते हैं।' इसके बाद यह कहकर कि 'फल की आशा से कर्म करने की अपेक्षा समबुद्धि का यह योग ही श्रेष्ठ है'[4], और 'बुद्धि की समता हो जाने पर कर्म करने वाले को कर्मसंबंधी पाप–पुण्य की बाधा नहीं होती; इसलिए तू इस 'योग' को प्राप्त कर।'

तुरंत ही योग का यह लक्षण फिर भी बतलाया है कि 'योगः कर्मसु कौशलम्'[5]। इससे सिद्ध होता है कि पाप–पुण्य से अलिप्त रहकर कर्म करने की जो समत्व बुद्धिरूप की विशेष युक्ति पहले बतलाई गई है, वही 'कौशल' है और इसी कुशलता अर्थात युक्ति से कर्म करने को गीता में 'योग' कहा गया है। इसी अर्थ को अर्जुन ने आगे चलकर 'योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन'[6] इस श्लोक में स्पष्ट कर दिया है। इसके संबंध में कि ज्ञानी मनुष्य को इस संसार में कैसे चलना चाहिए, श्री शंकराचार्य के पूर्व ही प्रचलित हुए वैदिक धर्म के अनुसार दो मार्ग हैं। एक मार्ग यह है कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर सब कर्मों का सन्न्यास अर्थात त्याग कर दे; और दूसरा यह कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी सब कर्मों को न छोड़े, उनको जन्म भर ऐसी युक्ति के साथ करता रहे कि उनके पाप–पुण्य की बाधा न होने पाए। इन्हीं दो मार्गों को गीता में सन्न्यास और कर्मयोग कहा है।[7]

सन्न्यास कहते हैं त्याग को, और गीता कहते हैं मेल को; अर्थात कर्म के त्याग और कर्म के मेल ही के उक्त दो भिन्न भिन्न मार्ग हैं। इन्हीं दो भिन्न भिन्न मार्गों को लक्ष्य करके आगे 'सांख्ययोगौ' (सांख्य और योग) ये संक्षिप्त नाम भी दिए गए हैं।[8] बुद्धि को स्थिर करने के लिए पातंजलयोग शास्त्रों के आसनों का वर्णन छठवें अध्याय में है सही; परन्तु वह किसके लिए है? तपस्वी के लिए नहीं, किन्तु वह कर्मयोगी अर्थात युक्ति पूर्वक कर्म करने वाले मनुष्य को 'समता' की युक्ति सिद्ध कर लेने के लिए बतलाया गया है। नहीं तो फिर 'तपस्विभ्योऽधिको योगी' इस वाक्य का कुछ अर्थ ही नहीं हो सकता।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 2.39
  2. गीता 2.41- 49
  3. गीता. 2.48
  4. गीता. 2.49
  5. गीता. 2.50
  6. गीता. 9.33
  7. गीता 5.2
  8. गीता. 5.4

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