गीता कर्म योग 19

इसी प्रकार भगवद्गीता में भी जब अर्जुन से भगवान कहते हैं –

इंद्रियस्येंद्रियस्यार्थे रागद्वषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत् तौ ह्यस्य परिपंथिनौ॥[1]
'प्रत्येक इंद्रिय में अपने अपने उपभोग्य अथवा त्याज्य पदार्थ के विषय में जो प्रीति अथवा द्वेष होता है, वह स्वभाव सिद्ध है। इनके वश में हमें नहीं होना चाहिए क्योंकि राग और द्वेष दोनों ही हमारे शत्रु हैं।' तब भगवान भी धर्म का वही लक्षण स्वीकार करते हैं जो स्वाभाविक मनोवृत्तियों को मर्यादित करने के विषय में ऊपर दिया गया है। मनुष्य की इंद्रियाँ उसे पशु के समान आचरण करने के लिए कहा करती हैं और उसकी बुद्धि इसके विरुद्ध दिशा में खींचा करती हैं। इस कलहाग्नि में जो लोग अपने शरीर में संचार करने वाले पशुत्व का यज्ञ करके कृतकृत्य (सफल) होते हैं, उन्हें ही सच्चा याज्ञिक कहना चाहिए और वही धन्य भी हैं।

धर्म को 'आचार–प्रभाव' कहिए, 'धारणात् धर्म' मानिए अथवा 'चोदनालक्षण धर्म' समझिए; धर्म की यानि व्यावहारिक नीतिबंधनों की कोई भी व्याख्या ले लीजिए, परन्तु जब धर्म–अधर्म का संशय उत्पन्न होता है तब उसका निर्णय करने के लिए उपर्युक्त तीनों लक्षणों का कुछ उपयोग नहीं होता। पहली व्याख्या से सिर्फ़ यही मालूम होता है कि धर्म का मूल स्वरूप क्या है; उसका बाह्य उपयोग दूसरी व्याख्या से मालूम होता है; और तीसरी व्याख्या से यही बोध होता है कि पहले पहल किसी ने धर्म की मर्यादा निश्चित कर दी है। परन्तु अनेक आचारों में भेद पाया जाता है; एक ही कर्म के अनेक परिणाम होते हैं और अनेक ऋषियों की आज्ञा अर्थात् 'चोदना' भी भिन्न भिन्न है। इन कारणों से संशय के समय धर्म निर्णय के लिए किसी दूसरे मार्ग को ढूँढ़ने की आवश्यकता होती है। यह मार्ग कौन–सा है? यही प्रश्न यक्ष ने युधिष्ठिर से किया था। इस पर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया है किः–

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः नैको ऋषिर्यस्य वचः प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पंथाः॥

यदि तर्क को देखें तो वह चंचल है, अर्थात् 'जिसकी बुद्धि जैसी तीव्र होती है वैसे ही अनेक प्रकार के अनेक अनुमान तर्क से निष्पन्न हो जाते हैं; श्रुति अर्थात् वेदाज्ञा देखी जाए तो वह भी भिन्न भिन्न है और यदि स्मृति शास्त्र को देखें तो ऐसा एक भी ऋषि नहीं है जिसका वचन अन्य ऋषियों की अपेक्षा अधिक प्रमाणभूत समझा जाए। अच्छा, इस (व्यावहारिक) धर्म का मूल तत्त्व देखा जाए तो वह भी अंधकार में छिप गया है, अर्थात् वह साधारण मनुष्यों की समझ में नहीं आ सकता। इसलिए महा–जन जिस राह से गए हों, वही (धर्म का) मार्ग है'।[2] ठीक है! परन्तु महा–जन किस को कहना चाहिए? उसका अर्थ 'बड़ा अथवा बहुत–सा जनसमूह' नहीं हो सकता क्योंकि जिन साधारण लोगों के मन में धर्म–अधर्म की शंका भी कभी उत्पन्न नहीं होती, उनके बतलाए मार्ग से जाना, मानो कठोपनिषद में वर्णित अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः वाली नीति ही को चरितार्थ करना है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 3.34
  2. महाभारत, वन पर्व, 312.115

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