गीता कर्म योग 17

प्राचीन यूनानी पंडितों की भी यही राय है कि 'अत्यंत हित' अथवा 'सद्गुण की पराकाष्ठा' के समान मनुष्य का कुछ न कुछ परम उद्देश्य कल्पित करके फिर उसी दृष्टि से कर्म–अकर्म का विवेचन करना चाहिए; और अरस्तू ने अपने नीतिशास्त्र के ग्रंथ[1] में कहा है कि आत्मा के हित में ही इन सब बातों का समावेश हो जाता है। तथापि इस विषय में आत्मा के हित के लिए जितनी प्रधानता देनी चाहिए थी, उतनी अरस्तू ने दी नहीं है। हमारे शास्त्रकारों में यह बात नहीं है। उन्होंने निश्चित किया है कि आत्मा का कल्याण अथवा आध्यात्मिक पूर्णावस्था ही प्रत्येक मनुष्य का पहला और परम उद्देश्य है। अन्य प्रकार के हितों की अपेक्षा इसी को प्रधान जानना चाहिए और इसी के अनुसार कर्म–अकर्म का विचार करना चाहिए; अध्यात्म विद्या को छोड़कर कर्म–अकर्म का विचार करना ठीक नहीं है। जान पड़ता है कि वर्तमान समय में पश्चिमी देशों के कुछ पंडितों ने भी कर्म–अकर्म के विवेचन की इसी पद्धति को स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ; जर्मन तत्त्वज्ञानी कान्ट ने पहले 'शुद्ध (व्यवसायात्मिक) बुद्धि की मीमांसा' नामक आध्यात्मिक ग्रंथ को लिखकर फिर उसकी पूर्ति के लिए 'व्यावहारिक (वासनात्मक) बुद्धि की मीमांसा' नाम का नीतिशास्त्र विषयक ग्रंथ लिखा है[2]; और इंग्लैंड में भी ग्रीन ने अपने 'नीतिशास्त्र के उपोद्धात' का सृष्टि के मूलभूत आत्मतत्त्व से ही आरंभ किया है।

परन्तु इन ग्रंथों के बदले केवल आधिभौतिक पंडितों के ही नीतिग्रंथ आजकल हमारे यहाँ अंग्रेज़ी शालाओं में पढ़ाए जाते हैं; जिसका परिणाम यह देख पड़ता है कि गीता में बतलाए गए कर्मयोग–शास्त्र के मूलतत्त्वों का हम लोगों में अंग्रेज़ी सीखे हुए बहुतेरे विद्वानों को भी स्पष्ट बोध नहीं होता। उक्त विवेचन से ज्ञात हो जाएगा कि व्यावहारिक नीति–बंधनों के लिए अथवा समाज धारणा की व्यवस्था के लिए हम 'धर्म' शब्द का उपयोग क्यों करते हैं। महाभारत, भगवद्गीता आदि संस्कृत ग्रंथों में तथा भाषा ग्रंथों में भी व्यावहारिक कर्त्तव्य अथवा नियम के अर्थ में 'धर्म' शब्द का हमेशा उपयोग किया जाता है। कुलधर्म और कुलाचार, दोनों ही शब्द समानार्थक समझे जाते हैं।

भारतीय युद्ध में एक समय कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी ने निगल लिया था; उसको उठाकर ऊपर लाने के लिए जब कर्ण अपने रथ से नीचे उतरा तब अर्जुन उसका वध करने के लिए उद्यत हुआ। यह देखकर कर्ण ने कहा, निःशस्त्र शत्रु को मारना धर्मयुद्ध नहीं है। इसे सुनकर श्री कृष्ण ने कर्ण को कई पिछली बातों का स्मरण दिलाया, जैसे कि – द्रौपदी का वस्त्र हरण कर लिया गया था, सब लोगों ने मिलकर अकेले अभिमन्यु का वध कर डाला था इत्यादि; और प्रत्येक प्रसंग में यह प्रश्न किया है कि 'हे कर्ण! उस समय तेरा धर्म कहाँ गया था?' इन सब बातों का वर्णन महाराष्ट्र कवि मोरोपंत जी ने किया है और महाभारत में भी इसी प्रसंग पर 'कते धर्मस्तदा गतः' प्रश्न में 'धर्म' शब्द का ही प्रयोग किया गया है तथा अंत में कहा गया है कि जो इस प्रकार का अधर्म करे, उसके साथ उसी तरह का बर्ताव करना ही उसको उचित दण्ड देना है। सारांश; क्या संस्कृत और क्या भाषा, सभी ग्रंथों में 'धर्म' शब्द का प्रयोग उन सब नीति नियमों के बारे में किया गया है जो समाज धारणा के लिए शिष्टजनों के द्वारा अध्यात्म दृष्टि से बनाए गए हैं; इसलिए उसी शब्द का उपयोग हमने भी इस ग्रंथ में किया है। इस दृष्टि से विचार करने पर नीति के उन नियमों अथवा 'शिष्टाचार' को धर्म की बुनियाद कह सकते हैं जो समाज धारणा के लिए शिष्टजनों के द्वारा प्रचलित किए गए हों और जो सर्वमान्य हो चुके हों।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अरस्तू नीतिशास्त्र, 1.7, 8
  2. कान्ट एक जर्मन तत्त्वज्ञानी था। इसे अर्वाचीन तत्त्वज्ञान–शास्त्र का जनक समझते हैं। इसके Oritique of Pure Reason (शुद्ध बुद्धि की मीमांसा) और Oritique of Practical Reason (वासनात्मक बुद्धि की मीमांसा) ये दो ग्रंथ प्रसिद्ध है। ग्रीन के ग्रंथ का नाम Prolegomena to Ethics है।

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