गीता कर्म योग 2

सबसे पहला शब्द ‘कर्म’ है। ‘कर्म’ शब्द ‘कृ’ धातु से बना है, उसका अर्थ 'करना, व्यापार, हलचल' होता है और इसी सामान्य अर्थ में गीता में उसका उपयोग हुआ है, अर्थात यही अर्थ गीता में विवक्षित है। ऐसा कहने का कारण यही है कि मीमांसाशास्त्र में और अन्य स्थानों पर भी इस शब्द के जो संकुचित अर्थ दिए गए हैं, उनके कारण पाठकों के मन में कुछ भ्रम उत्पन्न होने न पाएँ। किसी भी धर्म को ही ले लीजिए, उसमें ईश्वर प्राप्ति के लिए कुछ न कुछ कर्म करने को बतलाया ही रहता है। प्राचीन वैदिक धर्म के अनुसार देखा जाए तो यज्ञ–याग ही वह कर्म है जिससे ईश्वर की प्राप्ति होती है। वैदिक ग्रंथों में यज्ञ–याग की विधि बताई गई है; परन्तु इसके विषय में कहीं कहीं परस्पर विरोधी वचन भी पाए जाते हैं। अतएव उनकी एकता और मेल दिखलाने के लिए ही जैमिनि के पूर्व मीमांसाशास्त्र का प्रचार होने लगा। जैमिनि के मतानुसार वैदिक और श्रौत यज्ञ–याग करना ही प्रधान और प्राचीन धर्म है।

मनुष्य जो कुछ करता है, वह सब यज्ञ के लिए ही करता है। यदि उसे धन कमाना है तो यज्ञ के लिए और धान्य संग्रह करना है तो भी यज्ञ के लिए ही[1]। जबकि यज्ञ करने की आज्ञा वेदों ने ही दी है, तब यज्ञ के लिए मनुष्य कुछ भी कर्म करे वह उसको बंधक कभी नहीं होगा। वह कर्म यज्ञ का एक साधन है, वह स्वतंत्र रीति से साध्य वस्तु नहीं है। इसलिए यज्ञ से जे फल मिलने वाला है उसी में उस कर्म का भी समावेश हो जाता है, उस कर्म का कोई अलग फल नहीं होता। परन्तु यज्ञ के लिए किए गए ये कर्म यद्यपि स्वतंत्र फल के देने वाले नहीं हैं, तथापि स्वयं यज्ञ से स्वर्गप्राप्ति (अर्थात मीमांसकों के मतानुसार एक प्रकार की सुखप्राप्ति) होती है और इस स्वर्गप्राप्ति के लिए ही यज्ञकर्त्ता मनुष्य बड़े चाव से यज्ञ करता है। इसी से स्वयं यज्ञकर्म 'पुरुषार्थ' कहलाता है; क्योंकि जिस वस्तु पर किसी मनुष्य की प्राप्ति होती है और जिसे पाने की उसके मन में इच्छा होती है उसे 'पुरुषार्थ' कहते हैं[2]

यज्ञ का पर्यायवाची एक दूसरा ‘ऋतु’ शब्द है, इसलिए ‘यज्ञार्थ’ के बदले ‘ऋत्वर्थ’ भी कहा करते हैं। इस प्रकार सब कर्मों के दो वर्ग हो गएः– एक 'यज्ञार्थ' (ऋत्वर्थ) कर्म, अर्थात जो स्वतंत्र रीति से फल नहीं देते, अतएव अबंधक हैं; और दूसरे 'पुरुषार्थ' कर्म, अर्थात् जो पुरुष को लाभकारी होने के कारण बंधक हैं। संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ–याग आदि का ही वर्णन है। यद्यपि ऋग्वेद संहिता में इन्द्र आदि देवताओं के स्तुति संबंधी सूक्त हैं, तथापि मीमांसक–गण कहते हैं कि सब श्रुति ग्रंथ यज्ञ आदि कर्मों के ही प्रतिपादक हैं क्योंकि उनका विनियोग यज्ञ के ही समय में किया जाता है। इन कर्मठ, याज्ञिक या केवल कर्मवादियों का कहना है कि वेदोक्त यज्ञ–याग आदि कर्म करने से ही स्वर्ग प्राप्ति होती है, नहीं तो नहीं होती; चाहे ये यज्ञ अज्ञानता से किए जाएँ या ब्रह्मज्ञान से। यद्यपि उपनिषदों में ये यज्ञ ग्राह्य माने गए हैं, तथापि उनकी योग्यता ब्रह्मज्ञान से कम ठहराई गई है। इसलिए निश्चय किया गया है कि यज्ञ–याग से स्वर्ग प्राप्ति भले ही हो जाए, परन्तु इनके द्वारा मोक्ष नहीं मिल सकता। मोक्ष प्राप्ति के लिए ब्रह्मज्ञान की ही नितान्त आवश्यकता है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, शान्ति पर्व, 26.25
  2. जैमिनि सूत्र 4.1.1 और 2

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः