श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 702

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-4


यहाँ पर इसका स्पष्ट वर्णन है कि रजोगुणी लोग ऐसे देवताओं की सृष्टि करके उन्हें पूजते हैं और जो तमोगुणी हैं- अंधकार में हैं- वे प्रेतों की पूजा करते हैं। कभी-कभी लोग किसी मृत प्राणी की क़ब्र पर पूजा करते हैं। मैथुन सेवा भी तमोगुणी मानी जाती है। इसी प्रकार भारत के सुदूर ग्रामों में भूतों की पूता करने वाले हैं। हमने देखा है कि भारत के निम्नजाति के लोग कभी-कभी जंगल में जाते हैं और यदि उन्हें इसका पता चलता है कि कोई भूत किसी वृक्ष पर रहता है, तो वे उस वृक्ष की पूजा करते हैं और बलि चढ़ाते हैं। ये पूजा के विभिन्न प्रकार वास्तव में ईश्वर-पूजा नहीं है। ईश्वर पूजा तो सात्त्विक पुरुषों के लिए है। श्रीमद्भागवत में[1] कहा गया है- सत्त्वं विशुद्धं वसुदेव-शब्दितम्-जब व्यक्ति सतोगुणी होता है, तो वह वासुदेव की पूजा करता है। तात्पर्य यह है कि जो आगे गुणों से पूर्णतया शुद्ध हो चुके हैं और दिव्य पद को प्राप्त हैं, वे ही भगवान की पूजा कर सकते हैं।

निर्विशेषवादी सतोगुण में स्थित माने जाते हैं और वे पंचदेवताओं की पूजा करते हैं। वे भौतिक जगत में निराकार विष्णु को पूजते हैं, जो सिद्धान्तीकृत विष्णु कहलाते हैं। विष्णु भगवान के विस्तार हैं, लेकिन निर्विषवादी अन्ततः भगवान में विश्वास न करने के कारण सोचते हैं कि विष्णु का स्वरूप निराकार ब्रह्म का दूसरा पक्ष है। इसी प्रकार वे यह मानते हैं कि ब्रह्मा जी रजोगुण के निराकार रूप हैं। अतः वे कभी-कभी पाँच देवताओं का वर्णन करते हैं, जो पूज्य हैं। लेकिन चूँकि वे लोग निराकार ब्रह्म को ही वास्तविक सत्य मानते हैं, इसलिए वे अन्ततः समस्त पूज्य वस्तुओं को त्याग देते हैं। निष्कर्ष यह निकलता है कि प्रकृति के विभिन्न गुणों को दिव्य प्रकृति वाले व्यक्तियों की संगति से शुद्ध किया जा सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 4.3.23

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