श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 694

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-23

मनुष्योनि में जीव से आशा की जाती है कि वह बुद्धिमान बने और सर्वोच्च पद तक जीवन को ले जाने वाले विधानों का पालन करे। किन्तु यदि वह इनका पालन नहीं करता, तो उसका अधःपतन हो जाता है। लेकिन फिर भी जो विधि-विधानों तथा नैतिक सिद्धान्तों का पालन करता है, किन्तु अन्ततोगत्वा परमेश्वर को समझ नहीं पाता, तो उसका सारा ज्ञान व्यर्थ जाता है। और यदि वह ईश्वर के अस्तित्व को मान भी ले, किन्तु यदि वह भगवान् की सेवा नहीं करता, तो भी उसके प्रयास निष्फल हो जाते हैं। अतएव मनुष्य को चाहिए कि अपने आप को कृष्णभावनामृत तथा भक्ति के पद तक ऊपर ले जाये। तभी वह परम सिद्धावस्था को प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं।

काम-कारतः शब्द अत्यन्त सार्थक है। जो व्यक्ति जानबूझ कर नियमों का अतिक्रमण करता है, वह काम के वश में होकर कर्म करता है। वह जानता है कि ऐसा करना मना है, लेकिन फिर भी वह ऐसा करता है। इसी को स्वेच्छाचार कहते हैं। यह जानते हुए भी कि अमुक काम करना चाहिए, फिर भी वह उसे नहीं करता है, इसीलिए उसे स्वेच्छाचारी कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति अवश्य ही भगवान् द्वारा दंडित होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को मनुष्य जीवन की सिद्धि प्राप्त नहीं हो पाती। मनुष्य जीवन तो अपने आपको शुद्ध बनाने के लिए है, किन्तु जो व्यक्ति विधि-विधानों का पालन नहीं करता, वह अपने को न तो शुद्ध बना सकता है, न ही वास्तविक सुख प्राप्त कर सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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