श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 679

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-8


उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु शून्य है और जो भी सृष्टि दिखती है, वह केवल दृष्टि-भ्रम के कारण है। वे इसे सच मान बैठते हैं कि विभिन्नता से पूर्ण यह सारी सृष्टि अज्ञान का प्रदर्शन है। जिस प्रकार स्वप्न में हम ऐसी अनेक वस्तुओं की सृष्टि कर सकते हैं, जिनका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं होता, अतएव जब हम जाग जाते हैं, तो देखते हैं कि सब कुछ स्पप्नमात्र था। लेकिन वास्तव में, यद्यपि असुर यह कहते हैं कि जीवन स्वप्न है, लेकिन वे इस स्वप्न को भोगने में बड़े कुशल होते हैं। अतएव वे ज्ञानार्जन करने के बजाय अपने स्वप्नलोक में अधिकाधिक उलझ जाते हैं। उनकी मान्यता है कि जिस प्रकार शिशु के केवल स्त्री पुरुष के संभोग का फल है, उसी तरह यह संसार बिना किसी आत्मा के उत्पन्न हुआ है। उनके लिए यह पदार्थ का संयोग मात्र है, जिसने जीवों को उत्पन्न किया, अतएव आत्मा के अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं उठता।

जिस प्रकार अनेक जीवित प्राणी अकारण पसीने ही से (स्वेदज) तथा मृत शरीर से उत्पन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार यह सारा जीवित संसार दृश्य जगत् के भौतिक संयोगों से प्रकट हुआ है। अतएव प्रकृति ही इस संसार की कारणस्वरूपा है, इसका कोई अन्य कारण नहीं है। वे भगवद्गीता में कहे गये कृष्ण के इन वचनों को नहीं मानते- मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् -सारा भौतिक जगत् मेरे ही निर्देश के अन्तर्गत गतिशील है। दूसरे शब्दों में, असुरों को संसार की दृष्टि के विषया में पूरा-पूरा ज्ञान नहीं है, प्रत्येक का अपना कोई न कोई सिद्धान्त है। उनके अनुसार शास्त्रों की कोई एक व्याख्या दूसरी व्याख्या के ही समान है, क्योंकि वे शास्त्रीय आदेशों के मानक ज्ञान में विश्वास नहीं करते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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