श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 677

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-7


जहाँ तक आचरण की बात है, मानव आचरण का मार्गदर्शन करने वाले अनेक विधि-विधान हैं, जैसे मनु-सहिंता, जो मानव जाति का अधिनियम है। जहाँ तक आज भी सारे हिन्दू मनुसहिंता का अनुगमन करते हैं। इसी ग्रन्थ से उत्तराधिकार तथा अन्य विधि सम्बन्धी बातें ग्रहण की जाती हैं। मनुसहिंता में स्पष्ट कहा गया है कि स्त्री को स्वतंत्रता न प्रदान की जाय। इसका अर्थ यह नहीं होता कि स्त्रियों को दासी बनाकर रखा जाय। वे बालकों के समान हैं। बालकों को स्वतंत्रा नहीं दी जाती, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वे दास बनाकर रखें जाते हैं। लेकिन असुरों ने ऐसे आदेशों की उपेक्षा कर दी है और वे सोचने लगे हैं कि स्त्रियों को पुरुषों के समान ही स्वतन्त्रता प्रदान की जाय।

लेकिन इससे संसार की सामाजिक स्थिति में सुधार नहीं हुआ। वास्तव में स्त्री को जीवन की प्रत्येक अवस्था में सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए। उसके बाल्यकाल्य में पिता द्वारा संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए, तारुण्य में पति द्वारा और बुढ़ापे में बढे़ पुत्रों द्वारा। मनु-सहिंता के अनुसार यही उचित सामाजिक आचरण है। लेकिन आधुनिक शिक्षा ने नारी जीवन का एक अतिरंजित अहंकारपूर्ण बोध उत्पन्न कर दिया है, अतएव अब विवाह एक कल्पना बन चुका है। स्त्री की नैतिक स्थिति भी अब बहुत अच्छी नहीं रह गई है। अतएव असुरगण कोई ऐसा उपदेश ग्रहण नहीं करते, जो समाज के लिए अच्छा हो। चूँकि वे महर्षियों के अनुभवों तथा उनके द्वारा निर्धारित विधि-विधानों का पालन नहीं करते, अतएव आसुरी लोगों की सामाजिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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