श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-1-3
वर्णाश्रम संस्था में संन्यासी को समस्त सामाजिक वर्णों तथा आश्रमों में प्रधान या गुरु माना जाता है। ब्राह्मण को समाज के तीन वर्णों-क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों- का गुरु माना जाता है, लेकिन संन्यासी इस संस्था के शीर्ष पर होता है और ब्राह्मणों का भी गुरु माना जाता है। संन्यासी की पहली योग्यता निर्भयता होनी चाहिए। चूँकि संन्यासी को किसी सहायक के बिना एकाकी रहना होता है, अतएव भगवान् की कृपा ही उसका एकमात्र आश्रय होता है। जो यह सोचता है कि सारे सम्बन्ध तोड़ लेने के बाद मेरी रक्षा कौन करेगा, तो उसे संन्यास आश्रम स्वीकार नहीं करना चाहिए। उसे यह पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि कृष्ण या अन्तर्यामी स्वरूप परमात्मा सदैव अन्तर में रहते हैं, वे सब कुछ देखते रहते हैं और जानते हैं कि कोई क्या करना चाहता है। इस तरह मनुष्य को दृढ़विश्वास होना चाहिए कि परमात्मा स्वरूप कृष्ण शरणागत व्यक्ति की रक्षा करेंगे। उसे सोचना चाहिए ‘‘मैं कभी अकेला नहीं हूँ, भले ही मैं गहनतम जंगल में क्यों न रहूँ। मेरा साथ कृष्ण देंगे और सब तरह से मेरी रक्षा करेंगे।’’ ऐसा विश्वास अभयम् या निर्भयता कहलाता है। संन्यास आश्रम में व्यक्ति की ऐसी मनोदशा आवश्यक है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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