श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 646

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-7


न केवल मनुष्य तथा कुत्ते-बिल्ली जैसे जीव, अपितु इस भौतिक जगत के बड़े-बडे़ नियन्ता-यथा ब्रह्मा-शिव तथा विष्णु तक, परमेश्वर के अंश हैं। ये सभी सनातन अभिव्यक्तियाँ हैं, क्षणिक नहीं। कर्षति[1] शब्द अत्यन्त सार्थक हैं। बद्ध जीव मानो लौह शृंखलाओं से बँधा हो। वह मिथ्या अंहकार से बँधा रहता है और मन मुख्य कारण है जो उसे इस भवसागर की ओर धकेलता है। जब मनुष्य सतोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप अच्छे होते हैं। रजोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप कष्ट कारक होते हैं और जब वह तमोगुण में होता है, तो वह जीवन की निम्न योनियों में चला जाता है। लेकिन इस श्लोक से यह स्पष्ट है कि बद्धजीव मन तथा इन्द्रियों समेत भौतिक शरीर से आवरित है और जब वह मुक्त हो जाता है तो यह भौतिक आवरण नष्ट हो जाता है। लेकिन उसका आध्यात्मिक शरीर अपने व्यष्टि रूप में प्रकट हो जाता है। माध्यान्दिनायन श्रुति में यह सूचना प्राप्त है- स वा एष ब्रह्मनिष्ठ इदं शरीरं मर्त्यमातिसृज्य ब्रह्माभिसम्पद्य ब्रह्मणा पश्यति ब्रह्मणा शृणोति ब्रह्मणैवेदं सर्वमनुभवति। यहाँ यह बताया गया है कि जब जीव अपने इस भौतिक शरीर को त्यागता है और आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करता है, तो उसे पुनः आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है, जिससे वह भगवान का साक्षातकार कर सकता है। यह उनसे आमने-सामने बोल सकता है और सुन सकता है तथा जिस रूप में भगवान हैं, उन्हें समझ सकता है। स्मृति से भी यह ज्ञात होता है- वसन्ति यत्र पुरुषाः सर्वे वैकुण्ठ-मूर्तयः- वैकुण्ठ में सारे जीव भगवान जैसे शरीरों में रहते हैं। जहाँ तक शारीरिक बनावट का प्रश्न है, अंश रूप जीवों तथा विष्णुमूर्ति के विस्तारों (अंशों) में कोई अन्तर नहीं होता। दूसरे शब्दों में, भगवान की कृपा से मुक्त होने पर जीव को आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है।

ममैवांशः शब्द भी अत्यन्त सार्थक है, जिसका अर्थ है भगवान के अंश। भगवान का अंश ऐसा नहीं होता, जैसे किसी पदार्थ का टूटा खंड (अंश) हम द्वितीय अध्याय में देख चुके हैं कि आत्मा के खंड नहीं किये जा सकते। इस खंड की भौतिक दृष्टि से अनुभूति नहीं हो पाती। यह पदार्थ की भाँति नहीं है, जिसे चाहो तो कितने ही खण्ड कर दो और उन्हें पुनः जोड़ दो। ऐसी विचारधारा यहाँ पर लागू नहीं होती, क्योंकि संस्कृत के सनातन शब्द का प्रयोग हुआ है। विभिन्नांश सनातन है। द्वितीय अध्याय के प्रारम्भ में यह भी कहा गया है। कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में भगवान का अंश विद्यमान है।[2] वह अंश जब शारीरिक बन्धन से मुक्त हो जाता है? तो आध्यात्मिक आकाश में वैकुण्ठलोक में अपना आदि आध्यात्मिक शरीर प्राप्त कर लेता है, जिससे वह भगवान की संगति का लाभ उठाता है। किन्तु ऐसा समझा जाता है कि जीव भगवान का अंश होने के कारण गुणात्मक दृष्टि से भगवान के ही समान है, जिस प्रकार स्वर्ण के अंश भी स्वर्ण होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संघर्ष करना
  2. देहिनोअस्मिन्यथा देहे

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