श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 637

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-1


यद्यपि संसार में ऐसे वृक्ष का, जिसकी शाखायें नीचे की ओर हों तथा जडे़ ऊपर की ओर हों, कोई अनुभव नहीं है, किन्तु बात कुछ ऐसी ही है। ऐसा जलाशय के निकट पाया जा सकता है। हम देख सकते हैं- जलाशय के तट पर उगे वृक्ष का प्रतिविम्ब जल में पड़ता है, तो उसकी जडे़ं ऊपर की ओर तथा शाखायें नीचे की ओर दिखती हैं। दूसरी शब्दों में, यह जगतरूपी वृक्ष अध्यात्मिक जगतरूपी वास्तविक वृक्ष का प्रतिविम्ब मात्र है। इस आध्यात्मिक जगत का प्रतिविम्ब हमारी इच्छाओं में स्थित है, जिस प्रकार वृक्ष का प्रतिविम्ब जल में रहता है। इच्छा ही इस प्रतिविम्ब भौतिक प्रकाश में वस्तुओं के स्थित होने के कारण है। जो व्यक्ति इस भौतिक जगत से बाहर निकलना चाहता है, उसे वैश्लेषिक अध्ययन के माध्यम से उस वृक्ष को भलीभाँति जान लेना चाहिए। फिर इस वृक्ष से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर सकता है।

यह वृक्ष वास्तविक वृक्ष का प्रतिविम्ब होने के कारण वास्तविक प्रतिरूप है। आध्यात्मिक जगत में सबकुछ है। ब्रह्म को निर्विशेषवादी इस भौतिक वृक्ष का मूल मानते हैं और सांख्य दर्शन के अनुसार इसी मूल से पहले प्रकृति, पुरुष और तब तीन गुण निकलते हैं और फिर पाँच स्थूल तत्त्व[1], फिर दस इन्द्रियाँ[2] मन आदि। इस प्रकार वे सारे संसार को चौबीस तत्त्वों में विभाजित करते हैं। यदि ब्रह्म समस्त अभिव्यक्तियों का केन्द्र हैं, तो एक प्रकार से यह भौतिक जगत 180 अंश (गोलार्द्ध) में है और दूसरे 180 अंश (गोलार्द्ध) में आध्यात्मिक जगत है। चूँकि यह भौतिक जगत उल्टा प्रतिविम्ब है, अतः आध्यात्मिक जगत में भी इसी प्रकार विवधिता होनी चाहिए। प्रकृति परमेश्वर की बहिरंगा शक्ती है और पुरुष साक्षात् परमेश्वर है। इसकी व्याख्या भगवत्गीता में हो चुकी है। चूँकि यह अभिव्यक्ति भौतिक है, अतः क्षणिक है। प्रतिविम्ब भी क्षणिक होता है, क्योंकि कभी वह दिखता है और कभी नहीं दिखता। परन्तु वह स्त्रोत जहाँ से यह प्रतिविम्ब प्रतिविम्बित होता है, शाश्वत है। वास्तविक वृक्ष के भौतिक प्रतिविम्ब का विच्छेदन करना होता है। जब कोई कहता है कि अमुक व्यक्ति वेद जानता है, तो इससे समझा जाता है कि वह इस जगत की आशक्ति से विच्छेद करना जानता है। यदि वह इस विधि को जानता है, तो समझिये कि वह वास्तव में वेदों को जानता है। जो व्यक्ति वेदों के कर्म काण्ड द्वारा आकृष्ट होता है, वह इस वृक्ष की सुन्दर हरी पत्तियों से आकृष्ट होता है। वह वेदों के वास्तविक उद्देश्य को नहीं जानता। वेदों का उद्देश्य, भगवान् ने स्वयं प्रकट किया है और वह है इस प्रतिविम्बित वृक्ष को काट कर आध्यात्मिक जगत के वास्तविक वृक्ष को प्राप्त करना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पंच महाभूत
  2. दशेन्द्रिय

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