श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 585

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-20


तात्पर्य

प्रकृति तथा जीव दोनों ही नित्य हैं। तात्पर्य यह है कि वे सृष्टि के पहले से विद्यमान हैं। यह भौतिक अभिव्यक्ति परमेश्वर की शक्ति से है, और उसी प्रकार जीव भी हैं, किन्तु जीव श्रेष्ठ शक्ति है। जीव तथा प्रकृति इस ब्रह्माण्ड के उत्पन्न होने के पूर्व से विद्यमान हैं। प्रकृति तो महाविष्णु में लीन हो गई और जब इसकी आवश्यकता पड़ी तो यह महत्-तत्त्व के द्वारा प्रकट हुई। इसी प्रकार से जीव को भी उनके भीतर रहते हैं, और चूँकि वे बद्ध हैं, अतएव वे परमेश्वर की सेवा करने से विमुख हैं। इस तरह उन्हें वैकुण्ठ-लोक में प्रविष्ट होने नहीं दिया जाता। लेकिन प्रकृति के व्यक्त होने पर इन्हें भौतिक जगत में पुनः कर्म करने और वैकुण्ठ-लोक में प्रवेश करने से विमुख हैं।

इस तरह उन्हें वैकुण्ठ-लोक में प्रविष्ट होने नहीं दिया जाता। लेकिन प्रकृति के व्यक्त होने पर इन्हें भौतिक जगत् में पुनः कर्म करने और वैकुण्ठ-लोक में प्रवेश करने की तैयारी करने का अवसर दिया जाता है। इस भौतिक सृष्टि का यही रहस्य है। वास्तव में जीवात्मा मूलतः परमेश्वर का अंश है, लेकिन अपने विद्रोही स्वभाव के कारण वह प्रकृति के भीतर बद्ध रहता है। इसका कोई महत्त्व नहीं है कि ये जीव या श्रेष्ठ जीव किस प्रकार प्रकृति के सम्पर्क में आये। किन्तु भगवान् जानते हैं कि ऐसा कैसे और क्यों हुआ। शास्त्रों में भगवान का वचन है कि जो लोग प्रकृति द्वारा आकृष्ट हैं, वे कठिन जीवन-संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन इन कुछ श्लोकों के वर्णनों से यह निश्चित समझ लेना होगा कि प्रकृति के तीन गुणों के द्वारा उत्पन्न विकार प्रकृति की ही उपज हैं। जीवों के सारे विकार तथा प्रकार शरीर के कारण हैं। जहाँ तक आत्मा का सम्बन्ध है, सारे जीव एक से हैं।  

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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