श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 573

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-8-12


श्रीमद्भागवत में[1] व्याख्या की गई है- वदन्ति तत्त्वत्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्- जो परम सत्य के वास्तविक ज्ञाता हैं, वे जानते हैं कि आत्मा का साक्षात्कार तीन रूपों में किया जाता है- ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान्। परम सत्य के साक्षात्कार में भगवान् पराकाष्ठा होते हैं, अतएव मनुष्य को चाहिए कि भगवान को समझने के पद तक पहुँचे और भगवान् की भक्ति में लग जाय। यही ज्ञान की पूर्णता है।

विनम्रता से लेकर भगवत्साक्षात्कार तक की विधि भूमि से चल कर ऊपरी मंजिल तक पहुँचने के लिए सीढ़ी के समान है। इस सीढ़ी में कुछ ऐसे लोग हैं, जो अभी पहली सीढ़ी पर हैं, कुछ दूसरी पर, तो कुछ तीसरी पर। किन्तु जब तक मनुष्य ऊपरी मंजिल पर नहीं पहुँच जाता, जो कि कृष्ण का ज्ञान है, तब तक वह ज्ञान की निम्नतर अवस्था में ही रहता है। यदि कोई ईश्वर की बराबरी करते हुए आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करना चाहता है, तो उसका प्रयास विफल होगा। यह स्पष्ट कहा गया है कि विनम्रता के बिना ज्ञान सम्भव नहीं है। अपने को ईश्वर समझना सर्वाधिक गर्व है। यद्यपि जीव सदैव प्रकृति के कठोर नियमों द्वारा ठुकराया जाता है, फिर भी वह अज्ञान के कारण सोचता है कि ‘‘मैं ईश्वर हूँ।’’ ज्ञान का शुभारम्भ ‘अमानित्व’ या विनम्रता से होता है। मनुष्य को विनम्र होना चाहिए। परमेश्वर के प्रति विद्रोह के कारण ही मनुष्य प्रकृति के अधीन हो जाता है। मनुष्य को इस सच्चाई को जानना और इससे विश्वस्त होना चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.2.11

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