श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 535

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भक्तियोग
अध्याय 12 : श्लोक-6-7

नारायणीय में इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई-

या वै साधनसम्पत्ति: पुरुषार्थचतुष्टये।
तया विना तदाप्नोति नरो नारायणाश्रय:॥

इस श्लोक का भावार्थ यह है कि मनुष्य को चाहिए कि वह तो सकाम कर्म की विभिन्न विधियों में उलझे, न ही कोरे चिन्तन से ज्ञान का अनुशीलन करे। जो परम भगवान् की भक्ति में लीन है, वह उन समस्त लक्ष्यों को प्राप्त करता है जो अन्य योग विधियों, चिंतन, अनुष्ठानों, यज्ञों, दामपुण्यों आदि से प्राप्त होने वाले हैं। भक्ति का यही विशेष वरदान है।

केवल कृष्ण के पवित्र नाम-हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे, हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे- का कीर्तन करने से ही भक्ति सरलता तथा सुखपूर्वक परम धाम को पहुँच सकता है। लेकिन इस धाम को अन्य किसी धार्मिक विधि द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता।

भगवद्गीता का निष्कर्ष अठारहवें अध्याय में इस प्रकार व्यक्त हुआ है-

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज्।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥

आत्म-साक्षात्कार की अन्य समस्त विधियों को त्याग कर केवल कृष्णभावनामूत में भक्ति सम्पन्न करनी चाहिए। इससे जीवन की चरम सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। मनुष्य को अपने गत जीवन के पाप कर्मों पर विचार करने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि उसका उत्तरदायित्व भगवान् अपने ऊपर ले लेते हैं। अतएव मनुष्य को व्यर्थ ही आध्यात्मिक अनुभूति में अपने उद्धार का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह परम शक्तिमान ईश्वर कृष्ण की शरण ग्रहण करे। यही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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