श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-54
ब्रह्मसंहिता [1] का कथन है -ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः। "भगवान् तो कृष्ण हैं, जो सच्चिदानन्द स्वरूप हैं। उनका कोई आदि नहीं है, क्योंकि वे प्रत्येक वास्तु के आदि हैं। वे समस्त कारणों के कारण हैं।" अन्यत्र भी कहा गया है- यात्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परम ब्रह्म नराकृति- भगवान् एक व्यक्ति है, उसका नाम कृष्ण है और वह कभी-कभी इस पृथ्वी पर अवतरित होता है। इसी प्रकार श्रीमद्भागवत में भगवान् के सभी प्रकार के अवतारों का वर्णन मिलता है, जिसमें कृष्ण का भी नाम है। किन्तु यह कहा गया है कि यह कृष्ण ईश्वर के अवतार नहीं हैं, अपितु साक्षात् भगवान् हैं [2]। इसी प्रकार भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं- मत्तः परतरं नान्यत -मुझ भगवान् कृष्ण के रूप से कोई श्रेष्ठ नहीं है। अन्यत्र भी कहा गया है- अहम् आदिर्ही देवानाम् -मैं समस्त देवताओं का उद्गम हूँ। कृष्ण से भगवद्गीता ज्ञान प्राप्त करने पर अर्जुन भी इन शब्दों में इसकी पुष्टि करता है- परम ब्रह्म परम धाम पवित्रं परमं भवान् अब मैं भलीभाँति समझ गया कि आप परम सत्य भगवान् हैं और प्रत्येक वस्तु के आश्रय हैं अतः कृष्ण ने अर्जुन को जो विश्वरूप दिखलाया वह उनका आदि रूप नहीं है आदि रूप तो कृष्ण है। हजारों हाथों तथा हजारों सिरों वाला विश्वरूप तो उन लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए दिखलाया गया, जिनका ईश्वर से तनिक भी प्रेम नहीं है। यह ईश्वर का आदि रूप नहीं है। विश्वरूप उन शुद्धभक्तों के लिए तनिक भी आकर्षण नहीं होता, जो विभिन्न दिव्य सम्बन्धों में भगवान् से प्रेम करते हैं। भगवान् अपने आदि कृष्ण रूप में ही प्रेम का आदान-प्रदान करते हैं। अतः कृष्ण से घनिष्ठ मैत्री भाव से सम्बन्धित अर्जुन को यह विश्वरूप तनिक भी रुचिकर नहीं लगा, अपितु उसे भयानक लगा। कृष्ण के चिर सखा अर्जुन के पास अवश्य ही दिव्य दृष्टि रही होगी, वह भी सामान्य व्यक्ति न था। इसीलिए वह विश्वरूप से मोहित नहीं हुआ। यह रूप उन लोगों को भले ही अलौकिक लगे, जो अपने को सकाम कर्मों द्वारा ऊपर उठाना चाहते हैं, किन्तु भक्ति में रत व्यक्तियों के लिए तो दो भुजा वाले कृष्ण का रूप ही अत्यन्त प्रिय है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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