श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 521

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-54

नौसिखियों के लिए भगवान् की भक्ति करते हुए मंदिर-पूजा अनिवार्य है, जिसकी पुष्टि श्वेताश्वटार उपनिषद् में (6.23) हुई है -

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥

जिसमें भगवान् के लिए अविचल भक्तिभाव होता है और जिसका मार्गदर्शन गुरु करता है, जिसमें भी उसकी वैसी ही अविचल श्रद्धा होती है, वह भगवान् का दर्शन प्रकट रूप में कर सकता है। मानसिक चिंतन (मनोधर्म) द्वारा कृष्ण को नहीं समझा जा सकता। जो व्यक्ति प्रामाणिक गुरु से मार्गदर्शन प्राप्त नहीं करता, उसके लिए कृष्ण को समझने का शुभारम्भ कर पाना कठिन है। यहाँ पर तु शब्द का प्रयोग विशेष रूप से यह सूचित करने के लिए हुआ है कि अन्य विधि न तो बताई जा सकती है, न प्रयुक्त की जा सकती है, न ही कृष्ण को समझने में सफल हो सकती है।

कृष्ण को चतुर्भुज तथा द्विभुज साक्षात् रूप अर्जुन को दिखाए गये क्षणिक विश्वरूप से सर्वथा भिन्न हैं। नारायण का चतुर्भुज रूप तथा कृष्ण का द्विभुज रूप दोनों ही शाश्वत तथा दिव्य हैं, जबकि अर्जुन को दिखलाया गया विश्वरूप नश्वर है। सुदुर्दर्शम् शब्द का अर्थ ही है "देख पाने में कठिन", जिससे पता चलता है कि इस विश्वरूप को किसी ने नहीं देखा था। इससे यह भी पता चलता है कि भक्तों को इस रूप को दिखाने की आवश्यकता भी नहीं थी इस रूप को कृष्ण ने अर्जुन कि प्रार्थना पर दिखाया था, जिससे भविष्य में यदि कोई अपने को भगवान् का अवतार कहे तो लोह उससे कह सकें कि तुम अपना विश्वरूप दिखलाओ।

पिछले श्लोक में न शब्द की पुनरुक्ति सूचित करती है कि मनुष्य को वैदिक ग्रंथों के पाण्डित्य का गर्व नहीं होना चाहिए। उसे कृष्ण की भक्ति करनी चाहिए। तभी वह भगवद्गीता की टीका लिखने का प्रयास कर सकता है।

कृष्ण विश्वरूप से नारायण के चतुर्भुज रूप में और फिर अपने सहज द्विभुज रूप में परिणत होते हैं इससे यह सूचित होता है कि वैदिक साहित्य में उल्लेखित चतुर्भुज रूप तथा अन्य रूप कृष्ण के आदि द्विभुज रूप ही से उद्भूत हैं वे समस्त उद्भवों के उद्गम हैं कृष्ण इनसे भी भिन्न हैं, निर्विशेष रूप की कल्पना का तो कुछ कहना ही नहीं। जहाँ तक कृष्ण के चतुर्भुजी रूपों का सम्बन्ध है, यह स्पष्ट कहा गया है कि कृष्ण का सर्वाधिक निकट चतुर्भुजी रूप (जो महाविष्णु के नाम से विख्यात हैं और जो कारणार्णव में शयन करते हैं तथा जिनके श्वास तथा प्रश्वास में अनेक ब्रह्माण्ड निकलते एवं प्रवेश करते रहते हैं) भी भगवान् का अंश है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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