श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 433

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-4-5


ब्राह्मण से यह आशा की जाती है कि वह सारा जीवन ब्रह्मजिज्ञासा में लगा दे। ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः– जो ब्रह्म को जाने, वही ब्राह्मण है। इसीलिए दान ब्राह्मणों को दिया जाता है, क्योंकि वे सदैव आध्यात्मिक कार्य में रत रहते हैं और उन्हें जीविकोपार्जन के लिए समय नहीं मिल पाता। वैदिक साहित्य में संन्यासियों को भी दान दिये जाने का आदेश है। संन्यासी द्वार-द्वार जाकर भिक्षा माँगते हैं। वे धनार्जन के लिए नहीं, अपितु प्रचारार्थ ऐसा करते हैं। वे द्वार-द्वार जाकर गृहस्थों को अज्ञान की निद्रा से जगाते हैं। चूँकि गृहस्थ गृहकार्यों में व्यस्त रहने के कारण अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को, कृष्णभावनामृत जगाने को, भूले रहते हैं, अतः यह संन्यासियों का कर्तव्य है कि वे भिखारी बन कर गृहस्थों के पास जाएँ और कृष्णभावनामृत होने के लिए उन्हें प्रेरित करें। वेदों का कथन है कि मनुष्य जागे और मानव जीवन में जो प्राप्त करना है, उसे प्राप्त करे। संन्यासियों द्वारा यह ज्ञान तथा विधि वितरित की जाती है, अतः संन्यासी को ब्राह्मणों को तथा इसी प्रकार के उत्तम कार्यों के लिए दान देना चाहिए, किसी सनक के कारण नहीं।

यशस् भगवान चैतन्य के अनुसार होना चाहिए। उनका कथन है कि मनुष्य तभी प्रसिद्धि (यश) प्राप्त करता है, जब वह महान भक्त के रूप में जाना जाता हो। यही वास्तविक यश है। यदि कोई कृष्णभावनामृत में महान बनता है और विख्यात होता है, तो वही वास्तव में प्रसिद्ध है। जिसे ऐसा यश प्राप्त न हो, वह अप्रसिद्ध है।
ये सारे गुण संसार भर में मानव समाज में तथा देवतासमाज में प्रकट होते हैं। अन्य लोकों में भी विभिन्न तरह के मानव हैं और ये गुण उनमें भी होते हैं। तो, जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में प्रगति करना चाहता है, उसमें कृष्ण ये सारे गुण उत्पन्न कर देते हैं, किन्तु मनुष्य को तो इन्हें अपने अन्तर में विकसित करना होता है। जो व्यक्ति भगवान की सेवा में लग जाता है, वह भगवान की योजना के अनुसार इन सारे गुणों को विकसित कर लेता है।
हम जो कुछ भी अच्छा या बुरा देखते हैं उसका मूल श्रीकृष्ण हैं। इस संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं, जो कृष्ण में स्थित न हो। यही ज्ञान है। यद्यपि हम जानते हैं कि वस्तुएँ भिन्न रूप में स्थित हैं, किन्तु हमें यह अनुभव करना चाहिए कि सारी वस्तुएँ कृष्ण से ही उत्पन्न हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः