श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 420

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-30


भौतिक कल्मष इतना प्रबल है कि भगवान की सेवा में लगा योगी भी कभी-कभी उसके जाल में आ फँसता है। लेकिन कृष्णभावनामृत इतना शक्तिशाली होता है कि इस प्रकार का आकस्मिक पतन तुरन्त रुक जाता है। इसीलिए भक्तियोग सदैव सफल होता है। किसी भक्त के आदर्श पथ से अकस्मात च्युत होने पर हँसना नहीं चाहिए, क्योंकि जैसा कि अगले श्लोक में बताया गया है कि ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत में पूर्णतया स्थित हो जाता है, ऐसे आकस्मिक पतन कुछ समय के पश्चात रुक जाते हैं।

अतः जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में स्थित है और अनन्य भाव से हरे कृष्ण मन्त्र का जप करता है, उसे दिव्य स्थिति में आसीन समझना चाहिए, भले ही देववशात उसका पतन क्यों न हो चुका हो। साधुरेव शब्द अत्यन्त प्रभावात्मक हैं। ये अभक्तों को सावधान करते हैं कि आकस्मिक पतन के कारण भक्त का उपहास नहीं किया जाना चाहिए, उसे तब भी साधु ही मानना चाहिए। मन्तव्यः शब्द तो इससे भी अधिक बलशाली है। यदि कोई इस नियम को नहीं मानता और भक्त पर उसके पतन के कारण हँसता है तो वह भगवान के आदेश की अवज्ञा करता है। भक्त की एकमात्र योग्यता यह है कि वह अविचल तथा अनन्य भाव से भक्ति में तत्पर रहे–

नृसिंह पुराण में निम्नलिखित कथन प्राप्त है–

भगवति च हरावनन्यचेता
भृशमलिनोऽपि विराजते मनुष्यः।
न हि शशकलुषच्छबिः कदाचित्
तिमिरपराभवतामुपैति चन्द्रः।।

कहने का अर्थ यह है कि यदि भगवद्भक्ति में तत्पर व्यक्ति कभी घृणित कार्य करता पाया जाये तो इन कार्यों को उन धब्बों की तरह मान लेना चाहिए, जिस प्रकार चाँद में खरगोश के धब्बे हैं। इस धब्बों से चाँदनी के विस्तार में बाधा नहीं आती। इसी प्रकार साधु-पथ से भक्त का आकस्मिक पतन उसे निन्दनीय नहीं बनाता।
किन्तु इसी के साथ यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि दिव्य भक्ति करने वाला भक्त सभी प्रकार के निन्दनीय कर्म कर सकता है। इस श्लोक में केवल इसका उल्लेख है कि भौतिक सम्बन्धों की प्रबलता के कारण कभी कोई दुर्घटना हो सकती है। भक्ति तो एक प्रकार से माया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा है। जब तक मनुष्य माया से लड़ने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली नहीं होता, तब तक आकस्मिक पतन हो सकते हैं। किन्तु बलवान होने पर ऐसे पतन नहीं होते, जैसा कि पहले कहा जा चुका है। मनुष्य को इस श्लोक का दुरुपयोग करते हुए अशोभनीय कर्म नहीं करना चाहिए और यह नहीं सोचना चाहिए कि इतने पर भी वह भक्त बना रह सकता है। यदि वह भक्ति के द्वारा अपना चरित्र नहीं सुधार लेता तो उसे उच्चकोटि का भक्त नहीं मानना चाहिए।

Next.png

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः