श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 720

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-21


यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुन:।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥21॥[1]

भावार्थ

किन्तु जो दान प्रत्युपकार की भावना से या कर्म फल की इच्छा से या अनिच्छापूर्वक किया जाता है, वह रजोगुणी (राजस) कहलाता है।

तात्पर्य

दान कभी स्वर्ग जाने के लिए दिया जाता है, तो कभी अत्यन्त कष्ट से तथा कभी इस पश्चाताप के साथ कि ‘‘मैंने इतना व्यय इस तरह क्यों किया?’’ कभी-कभी अपने वरिष्ठजनों के दबाव में आकर भी दान दिया जाता है। ऐसे दान रजोगुण में दिये गये माने जाते हैं।

ऐसे अनेक दातव्य न्यास हैं, जो उन संस्थाओं को दान देते हैं, जहाँ इन्द्रियभोग का बाजार गर्भ रहता है। वैदिक शास्त्र ऐसे दान की संस्तुति नहीं करते। केवल सात्त्विक दान की संस्तुति की गई है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यत्= जो; तु= लेकिन; प्रति-उपकार-अर्थम्= बदले में पाने के उद्देश्य से; फलम्= फल को; उद्दिश्य= इच्छा करके; वा= अथवा; तत= उस; दानम्= दान को; राजसम्= रजोगुणी; स्मृरम्= माना जाता है।

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