श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 365

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदानत स्वामी प्रभुपाद

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भगवत्प्राप्ति
अध्याय 8 : श्लोक-14


शुद्ध भक्त सदैव कृष्ण के विभिन्न रूपों में से किसी एक की भक्ति में लगा रहता है। कृष्ण के अनेक स्वांश तथा अवतार हैं, यथा राम तथा नृसिंह जिनमें से भक्त किसी एक रूप को चुनकर उसकी प्रेमाभक्ति में मन को स्थिर कर सकता है। ऐसे भक्त को उन अनेक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता, जो अन्य योग के अभ्यासकर्ताओं को झेलनी पड़ती हैं। भक्तियोग अत्यन्त सरल, शुद्ध तथा सुगम है इसका शुभारम्भ हरे कृष्ण जप से किया जा सकता है। भगवान सबों पर कृपालु हैं, किन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जो अनन्य भाव से उनकी सेवा करते हैं, वे उनके ऊपर विशेष कृपालु रहते हैं। भगवान ऐसे भक्तों की सहायता अनेक प्रकार से करते हैं। जैसा की वेदों में[1] कहा गया है– यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्– जिसने पूरी तरह से भगवान की शरण ले ली है और जो उनकी भक्ति में लगा हुआ है वही भगवान को यथारूप में समझ सकता है। तथा गीता में भी[2]कहा गया है– ददामि बुद्धियोगं तम– ऐसे भक्त को भगवान पर्याप्त बुद्धि प्रदान करते हैं, जिससे वह उन्हें भगवद्धाम में प्राप्त कर सके।

शुद्ध भक्त का सबसे बड़ा गुण यह है कि वह देश अथवा काल का विचार किये बिना अनन्य भाव से कृष्ण का ही चिन्तन करता रहता है। उसको किसी तरह का व्यवधान नहीं होना चाहिए। उसे कहीं भी और किसी भी समय अपना सेवा कार्य करते रहने में समर्थ होना चाहिए। कुछ लोगों का कहना है कि भक्तों को वृन्दावन जैसे पवित्र स्थानों में या किसी पवित्र नगर में, जहाँ भगवान रह चुके हैं, रहना चाहिए, किन्तु शुद्ध भक्त कहीं भी रहकर अपनी भक्ति से वृन्दावन जैसा वातावरण उत्पन्न कर सकता है। श्री अद्वैत ने चैतन्य महाप्रभु से कहा था, “आप जहाँ भी हैं, हे प्रभु! वहीं वृन्दावन है।”

जैसा कि सततम तथा नित्यशः शब्दों से सूचित होता है, शुद्ध भक्त निरन्तर कृष्ण का ही स्मरण करता है और उन्हीं का ध्यान करता है। ये शुद्ध भक्त के गुण हैं, जिनके लिए भगवान सहज सुलभ हैं। गीता समस्त योग पद्धतियों में से भक्तियोग की ही संस्तुति करती है। सामान्यतया भक्तियोग पाँच प्रकार से भक्ति में लगे रहते हैं– (1) शान्त भक्त, जो उदासीन रहकर भक्ति में युक्त होते हैं, (2) दास्य भक्त, जो दास के रूप में भक्ति में युक्त होते हैं, (3) सख्य भक्त, जो सखा रूप में भक्ति में युक्त होते हैं, (4) वात्सल्य भक्त, जो माता-पिता की भाँति भक्ति में युक्त होते हैं तथा (5) माधुर्य भक्त, जो परमेश्वर के साथ दाम्पत्य प्रेमी की भाँति भक्ति में युक्त होते हैं। शुद्ध भक्त उनमें से किसी में भी परमेश्वर की प्रेमाभक्ति में युक्त होता है और उन्हें कभी नहीं भूल पाता,जिससे भगवान उसे सरलता से प्राप्त हो जाते हैं। जिस प्रकार शुद्ध भक्त क्षणभर के लिए भी भगवान को नहीं भूलता, उसी प्रकार भगवान भी अपने शुद्ध भक्त को क्षणभर के लिए भी नहीं भूलते। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे– इस महामंत्र के कीर्तन की कृष्णभावनाभावित विधि का यही सबसे बड़ा आशीर्वाद है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कठोपनिषद 1.2-23
  2. 10.10

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