कृष्ण द्वारा कंस वध

कृष्ण संबंधी लेख
कंस का वध करते श्रीकृष्ण

मथुरा आगमन से पूर्व ही कृष्ण-बलराम का नाम इस भव्य नगरी में प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया, वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।

कृष्ण का शस्त्रागार में प्रवेश

कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुँच गये[1] और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।[2]

कंस का वध

कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्याग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलयापीड़ नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चाणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया।

इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की, किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोककर उसका वध कर डाला।[3] कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-

'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम्।
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम्॥'[4]

तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र।'[5]

हो सकता है कि मथुरा नरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार[6] सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो।

वसुदेव-देवकी की मुक्ति

अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिलकर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा-

"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं। अत: सिंहासन पर बैठें।"[7] मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।

"ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम्।
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै:॥"[8]

इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूरदर्शिता का महान आदर्श उपस्थित किया।

श्रीमद्भागवत महापुराण का उल्लेख

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[9] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की इस अद्भुत लीला को देखकर सभी दर्शकों को बड़ा आनन्द हुआ। श्रेष्ठ ब्राह्मण और साधु पुरुष "धन्य है, धन्य है", इस प्रकार कहकर प्रशंसा करने लगे। परन्तु कंस को इससे बड़ा दुःख हुआ। वह और भी चिढ़ गया। जब उसके प्रधान पहलवान मार डाले गये और बचे हुए सब-के-सब भाग गये, तब भोजराज कंस ने अपने बाजे-गाजे बंद करा दिये और अपने सेवकों को यह आज्ञा दी- "अरे, वसुदेव के इन दुश्चरित्र लड़कों को नगर से बाहर निकाल दो। गोपों का सारा धन छीन लो और दुर्बुद्धि नन्द को कैद कर लो। वसुदेव भी बड़ा कुबुद्धि और दुष्ट है। उसे शीघ्र मार डालो और उग्रसेन मेरा पिता होने पर भी अपने अनुयायियों के साथ शत्रुओं से मिला हुआ है। इसलिये उसे भी जीता मत छोडो।"

कंस इस प्रकार बढ़-बढ़कर बकवाद कर रहा था कि अविनाशी श्रीकृष्ण कुपित होकर फुर्ती से वेगपूर्वक उछलकर लीला से ही उसके ऊँचे मंच पर जा चढ़े। जब मनस्वी कंस ने देखा कि मेरे मृत्युरूप भगवान श्रीकृष्ण सामने आ गये, तब वह सहसा अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और हाथ में ढाल तथा तलवार उठा ली। हाथ में तलवार लेकर वह चोट करने का अवसर ढूँढता हुआ पैंतरा बदलने लगा। आकाश में उड़ते हुए बाज के समान वह कभी दायीं ओर जाता तो कभी बायीं ओर, परन्तु भगवान का प्रचण्ड तेज अत्यन्त दुस्सह है। जैसे गरुड़ साँप को पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया। इसी समय कंस का मुकुट गिर गया और भगवान ने उसके केश पकड़कर उसे भी उस ऊँचे मंच से रंगभूमि में गिरा दिया। फिर परम स्वतन्त्र और सारे विश्व के आश्रय भगवान श्रीकृष्ण उसके ऊपर स्वयं कूद पड़े। उनके कूदते ही कंस की मृत्यु हो गयी। सबके देखते-देखते भगवान श्रीकृष्ण कंस की लाश को धरती पर उसी प्रकार घसीटने लगे, जैसे सिंह हाथी को घसीटे। नरेन्द्र! उस समय सबके मुँह से ‘हाय! हाय!’ की बड़ी ऊँची आवाज सुनायी पड़ी।

कंस नित्य-निरन्तर बड़ी घबड़ाहट के साथ श्रीकृष्ण का ही चिन्तन करता रहता था। वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और साँस लेते-सब समय अपने सामने चक्र हाथ में लिये भगवान श्रीकृष्ण को ही देखता रहता था। इस नित्य चिन्तन के फलस्वरूप-वह चाहे द्वेषभाव से ही क्यों न किया गया हो-उसे भगवान के उसी रूप की प्राप्ति हुई, सारुप्य मुक्ति हुई, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े तपस्वी योगियों के लिये भी कठिन है। कंस के कंक और न्यग्रोध आदि आठ छोटे भाई थे। वे अपने बड़े भाई का बदला लेने के लिये क्रोध से आगबबूले होकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की ओर दौड़े। जब भगवान बलरामजी ने देखा कि वे बड़े वेग से युद्ध के लिये तैयार होकर दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने परिघ उठाकर उन्हें वैसे ही मार डाला, जैसे सिंह पशुओं को मार डालता है। उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। भगवान के विभूतिस्वरूप ब्रह्मा, शंकर आदि देवता बड़े आनन्द से पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं।

कंस और उसके भाइयों की स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनों की मृत्यु से अत्यन्त दुःखित हुईं। वे अपने सिर पीटती हुई आँखों में आँसू भरे वहाँ आयीं। वीरशय्या पर सोये हुए अपने पतियों से लिपटकर वे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसू बहाती हुई ऊँचे स्वर से विलाप करने लगीं। ‘हा नाथ! हे प्यारे! हे धर्मज्ञ! हे करुणामय! हे अनाथवत्सल! आपकी मृत्यु से हम सबकी मृत्यु हो गयी। आज हमारे घर उजड़ गये। हमारी सन्तान अनाथ हो गयी। पुरुषश्रेष्ठ! इस पुरी के आप ही स्वामी थे। आपके विरह से इसके उत्सव समाप्त हो गये और मंगलचिह्न उतर गये। यह हमारी ही भाँति विधवा होकर शोभाहीन हो गयी। स्वामी! आपने निरपराध प्राणियों के साथ घोर द्रोह किया था, अन्याय किया था; इसी से आपकी यह गति हुई। सच है, जो जगत के जीवों से द्रोह करता है, उनका अहित करता है, ऐसा कौन पुरुष शान्ति पा सकता है? ये भगवान श्रीकृष्ण जगत के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के आधार हैं। यही रक्षक भी हैं। जो इसका बुरा चाहता है, इनका तिरस्कार करता है; वह कभी सुखी नहीं हो सकता।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ही सारे संसार के जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियों को ढाढ़स बँधाया, सान्त्वना दी; फिर लोक-रीति के अनुसार मरने वालों का जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया। तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने कारागार में जाकर अपने माता-पिता को बन्धन से छुड़ाया और सिर से स्पर्श करके उनके चरणों की वन्दना की। किंतु अपने पुत्रों के प्रणाम करने पर भी देवकी और वसुदेव ने उन्हें जगदीश्वर समझकर अपने हृदय से नहीं लगाया। उन्हें शंका हो गयी कि हम जगदीश्वर को पुत्र कैसे समझें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरुद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जायें। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।
  2. पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। 'ब्रह्मबैवर्तपुराण' (अध्याय 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे।
  3. भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है।
  4. विष्णुपुराण, पृष्ठ 5, 20, 91
  5. भागवत 10,44,38
  6. हरिवंश, अध्याय 88
  7. हरिवंश 87, 52। sS
  8. विष्णु. 5,21,120
  9. दशम स्कन्ध, अध्याय 44, श्लोक 30-51

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