जौ जग और बियौ कोउ पाऊँ।
तौ हौं बिनती बार-बार करि, कत प्रभु तुमहि सुनाऊँ ?
सिव-बिरंचि, सुर-असुर, नाग-मुनि, सु तौ जाँचि जन आयौ।
भूल्यौ, भ्रम्यौ, तृषातुर मृग लौं, काहूँ स्नम न गँवायौ।
अपथ सकल चलि, चाहि चहूँ दिसि, भ्रम उघटत मतिमंद।
थकित होत रथ चक्र-हीन ज्यौं, निरखि कर्म-गुन-फंद।
पौरुषा-रहित, अजित इंद्रिनि बस, ज्यौं गज पंक परयौ।
विषयासक्त, नटी के कपि ज्यौं, जोइ जोइ कह्यो करयौ।
भव-अगाध-जल-मग्न महा सठ, तजि पद-कूल रह्यो।
गिरा-रहित, वृक-ग्रसित अजा लौं, अंतक आनि गह्यौ।
अपने ही अँखियानि दोष तैं, रबिहिं उलूक न मानत।
अतिमय सुकृतरहित, अध ब्याकुल, बृथा-भ्रमित रज छानत।
सुनु त्रयपाप-हरन, करुनामय, संतत दीनदयाल !
सूर कुटिल राखौ सरनाई, इहिं व्याकुल कलिकाल।।201।।
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