सबै दिन एकै से नहिं जात -सूरदास

सूरसागर

द्वितीय स्कन्ध

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राग धनाश्री
बैराग्यध-वर्णन




सबै दिन एकै से नहिं जात।
सुमिरन-भजन कियौ करि हरि कौ, जब लौं तन-कुसलात।
कबहूँ कमला चपल पाइ कै, टेढैं टेढ़ै जात।
कबहूँ मग-मग धूरि बटोरत, भोजन कौं बिलखात।
या देही कौ गरव करत, धन-जीवन के मदमात।
हौं बड़, हौं बड़, बहुत कहावत, सूधैं कहत न बात।
बाद-बिवाद सबै दिन बीतैं, खेलत ही अरु खात।
जोग न जुक्ति, ध्यातन नहिं पूजा, बिरध भऐं पछितात।
तातैं कहत सँभारहि रे नर, काहे कौं इतरात ?
सूरदास भगवंत-भजन बिनु, कहूँ नाहिं सुख गात।।22।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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