सबै दिन एकै से नहिं जात।
सुमिरन-भजन कियौ करि हरि कौ, जब लौं तन-कुसलात।
कबहूँ कमला चपल पाइ कै, टेढैं टेढ़ै जात।
कबहूँ मग-मग धूरि बटोरत, भोजन कौं बिलखात।
या देही कौ गरव करत, धन-जीवन के मदमात।
हौं बड़, हौं बड़, बहुत कहावत, सूधैं कहत न बात।
बाद-बिवाद सबै दिन बीतैं, खेलत ही अरु खात।
जोग न जुक्ति, ध्यातन नहिं पूजा, बिरध भऐं पछितात।
तातैं कहत सँभारहि रे नर, काहे कौं इतरात ?
सूरदास भगवंत-भजन बिनु, कहूँ नाहिं सुख गात।।22।।
इस पद के अनुवाद के लिए यहाँ क्लिक करें