बिनु परबहि उपराग आजु हरि, तुम है चलन कह्यौ।
को जानै उहिं राहु रमापति कत ह्वै सोध लह्यौ।।
वह तकि बीच नीच नयननि मिलि, अंजन रूप रह्यौ।
विरहसंधि बल पाइ मनौ हठि, है तिय बदन गह्यौ।।
दुसह दसन मनु धरत स्रमित अति, परस न परत सह्यौ।
देखौ देव अमृत अंतर तै, ऊपर जात बह्यौ।।
अब यह ससि ऐसौ लागत, ज्यौ बिनु माखनहिं मह्यौ।
'सूर' सकल रसनिधि दरसन बिनु, मुख छबि अधिक दह्यौ।।2986।।