जो हरि करै सो होइ, करता राम हरी।
ज्यौं दरपन-प्रतिबिंब, त्यौं सब सृष्टि करी।
आदि निरंजन, निराकार, कोउ हुतौ न दूसर।
रचैं सृष्टि-विस्तार, भई इच्छा इक औसर।
त्रिगुन प्रकृति तैं महत्तत्त्व, महत्तत्त्व तैं अहँकार।
मन-इंद्री-सब्दादि-पँच, तातैं कियौ विस्तार।
सब्दादिक तैं पंचभूत सुंदर प्रगटाए।
पुनि सबकौं रचि अंड, आपु मैं आपु समाए।
तीनि लोक निज देह मैं, राखे करि विस्तार।
आदि पुरुष सोई भयौ, जो प्रभु अगम अपार।
नाभि-कमल तैं आदि पुरुष मोकौं प्रगटायौ।
खोजत जुग गए बीति, नाल कौ अंत न पायौ।
तिन मोकौं आज्ञा करो, रचि सब सृष्टि बनाइ।
थावर-जंगम, सुर-असुर, रचे सवै मैं आइ।