नंद सब गोपी ग्वाल समेत -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

सुदर्शन विद्याधर-शाप-मोचन तथा शंखचूड़ बध

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राग बिलावल
विधाधर-शाप-मोचन


नंद सब गोपी ग्वाल समेत।
गए सरस्वति-तट इक दिन, सिव अंबिका पूजा हेत।।
पूजा करत सकल दिन बीत्यौ, ह्वै आई तहँ साँझ।
ब्रजबासी सब स्रमित होइ कै, सोइ रहे बन साँझ।।
अर्धनिसा इक उरग आइ कै, लपटि गयौ नंद-पाइ।
चौंकि परयौ, दुख पाइ पुकारयौ, हा-हा कृष्न छुड़ाइ।।
ग्वालनि मिलि श्रीकृष्न जगाइ, छुवत पाइ दियौ छोड़।
विधाधर कौ रूप धारि कह्यौ, करै को तुम्हरी होड़।।
सब देवनि के देव तुमहिं हौ, मैं अब देख्यौ जोइ।
रिषि अंगिरा साप मोहिं दीन्हौ, भयौ अनुग्रह सोइ।।
हरि-आज्ञा को पाइ, नाइ सिर, गयौ आपनैं ओक।
सूरदास हरि के गुन गावत, ब्रज आए व्रज-लोक।।1184।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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