सुकदेव कहत सुनौ राजा ।
ज्ञानी लोभ करत नहिं कबहूँ, लोभ बिगारत काजा ।।
करिकै लोभ अमृत जो पीवै, विष समान सो होई ।
विष अमृत होइ जाइ लोभ बिनु यह जानत जन कोई ।।
एक समै जदुपति औ हलधर, पाडवगृह पग धारे ।
सतधन्वा अरु सुफलकसुत मिलि, कीन्हौ मंत्र बिचारे ।।
सत्नाजित कौ हति मनि लीजै, ज्यौ जानै नहिं कोई ।
ऐसौ समय बहुरि फिरि नाही, पाछै होइ सु होई ।।
निसि अँधियारी जाइ सुधन्वा, ताहि मारि मनि ल्यायौ ।
फैलि गई यह बात नगर मैं, तब मन मैं पछितायौ ।।
सतिभामा करि सोक पिता कौ, जदुपति पास सिधाई ।
सतधन्वा करतूति करी सो, हरि कौ जाइ सुनाई ।।