उठी प्रातहीं राधिका, दोहनि कर लाई।
महरि सुता सौं तब कह्यौ, कहाँ चली अतुराई।।
खरिक दुहावन जाति हौं, तुम्हरी सेवकाई।
तुम ठकुराइनि घर रहौ, मोहिं चेरी पाई।।
रीती देखी दोहनी, कत खीझति धाई।
काल्हि गई अवसेरि कै, ह्वाँ उठे रिसाई।।
गाइ गईं सब प्याइ कै, प्रातहिं नहिं आई।
ता कारन मैं जाति हौं अति करति चँड़ाई।।
यह कहि जननी सौं चली ब्रज कौ समुहाई।
सूर स्याम गृह-द्वारहीं, गो करत दुहाई।।713।।