असुर-पति अतिहीं गर्ब धरयौ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मारू
केशी-वध


असुर-पति अतिहीं गर्ब धरयौ।।
महा-महा जे सुभट दैत्‍य-कुल, बैठे सब उमराव।
तिहूँ भुवन भरि गम है मेरो, मो सन्‍मुख को आउ।।
मो समान सेवक नहिं मेरैं, जाहि कहौं कछु दाउ।
काहि कहौं, को ऐसौ लायक, तातैं मोहिं पछिताउ।।
नृपतिराइ आयसु दै मोकौं, ऐसौ कौन बिचार।
तुम अपने चित सोचत जाकौं, असुरनि के सरदार।।
ज्‍यौ करि क्रोध जाहि तन ताकौ, ताकौ है संहार।
मथुरा-पति यह सुनि हरषित भयौ, मनहिं धरयौ आभार।।
स्‍वेत छत्र फहरात सीस पर, धुज पताक, बहु बान।
ऐसौ को जो मोहिं न जानत, तिहुं भुवन मो आन।।
असुर बंस जे महाबली सब, कहौं काहि ह्वां जान।
तनक-तनक से महर-ढुटौना, करि आवै बिनु प्रान।।
यह कहि कंस चितै केसी-तन, कह्यौ जाइ करि काज।
तृनावर्त, सकटाऽरु पूतना, उनके कृत सुनि लाज।।
तो तैं कछु ह्वैहै मैं जानत, घरि आनै ज्‍यौं बाज।
कल बल छल करि मारि तुरत हीं, लै आवहु अब आज।।

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