हरि हरि-भक्तनि कौं सिर नाऊँ -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सारंग
परीक्षित-कथा




हरि हरि-भक्तनि कौं सिर नाऊँ। हरि हरि-भक्तनि के गुन गाऊँ।
हरि, हरि-भक्त एक नहिं दोइ। पै यह जानत बिरला कोइ।
भक्त परीक्षित हरि कौ प्यारौ। गर्भ मँझार हुतौ जब बारौ।
ब्रह्म अस्र तैं ताहि बचायौ। जुग जुग बिरद यहै चलि आयौ।
बहुरि राज ताको जब भयौ। मिस दिगविजय चहूँ दिसि गयौ।
परजा सकल धर्मरत देखी। ताकैं मन भयौ हर्ष बिसेखी।
कुरुच्छेत्र मैं पुनि जब आयौ। गाइ वृषभ तहँ दुखित पायौ।
तासु बृषभ कैं पग त्रय नाहिं। रोवति गाइ देखि करि ताहिं।
बृषभ, धर्म, पृथ्वी सो गाइ। बृषभ कह्यौ तासौं या भाइ।
मेरैं हेत दुखी तू होत। कै अधर्म तो ऊपर होत !
गो कह्यौं, हरि बैकुंठ सिधारे। सम-दम उनहीं संग पधारे।
दया, धर्म संतोषहु गयौ। ज्ञान, छमादिक सब लय भयौ।
जज्ञ सराध न कोउ करै। कोऊ धर्म न मन मैं धरै।
अरु तुमकौं बिनु पाइनि देखि। मोहिं होत है दुख बिसेखि।
सूद्रराज इहि अंतर आयो। बृषभ-गाइ कौं पाइ चलायौ।
ताहि परीच्छित खड़्ग उइाइ। बहुरौ बचन कह्यौ या भाइ।
तू को, कौन दैश है तेरौ ? कै छल गह्यौ राज सब मेरौ।
या बिधि नृपति परीच्छित कह्यौ। पै वासौं उत्तर नहिं लह्यौ।
कह्यौ वृषभ सौं को दुखदाइ ? तासु नाम मोहिं देहु बताइ।
इंद्र होइ ताहू कौं मारौं। तुम्हरौं यह संताप निवारौं।
वृषभ कह्यौ तूम ऐसेहि राउ। पै मैं लेउँ कौन कौ नाउँ ?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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