सूरदास जन त्यौंही गायौ -सूरदास

सूरसागर

सप्तम स्कन्ध

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राग बिलावल
भगवान का श्री शिव को साहाय्या-प्रदान



हरि हरि, हरि हरि सुमिरन करौ। हरि-चरनारबिंद उर घरो।
हरि ज्यौं सिव की करी सहाइ। कहौं सथा, सुनौ चित लाइ।
एक समय सुर-असुर प्रचारि। लरे भई असुरनि की हारि।
तिन ब्रह्मा कै हित तप कीन्हों। ब्रह्म प्रगटि दरसन तिन दीन्हौ।
तब ब्रह्मा सौ कह्मों सिर नाइ। हमरौ जय ह्वैहै किहिं भाइ।
ब्रह्मा तब चह बचन उचारौ ।मय सोमाया-कोट सँवारी।
तामैं बैठि सुरनि जय करौ। तुम उनके मारै नहिं मरौ।
असुरनि यह मय कौ समुझाई। तब मय दीन्हों कोट बनाई।
लोह तरै, मधि रूपा लायौ। ताके ऊपर कनक लगायौ।
जहँ लै जाइ तहाँ वह जाइ। त्रिपुर नाम सो कोट कहाइ।
गढ़ कै बल असुरनि जय पाइ । लियौ सुरनि सौं अमृत छिनाइ।
सुर सब मिलि गए सिव सरनाइ। सिव तब तिनकी करो सहाइ।
पै सिव जाकौ मारै धाइ। अमृत प्याइ तिहिं लेहिं जिबाइ।
तब सिव कीन्हो हरि कौ ध्यान। प्रगट भए तहँ श्री भगवान।
सिव हरि सौ सब कथा सुनाई। हरि कहयौ, अब मैं करौ सहाई।
सुंदर गऊ-रूप हरि कीन्हौ। बछरा करि ब्रह्मा सँग लीन्हौ।
अमृत-कुंड मै पैठे जाइ। कह्मौ असुरनि, मारौ इहि गाइ।
एकनि कह्मौ, याहि मत मारौ। याको सुंदर रूप निहारौ ।
केतिक अमृत पिए यह भाइ। हरि मति तिनकी यौ भरमाइ।
हरि अमृत लै गए अकास। असुर देखि यह भए उदास।
कह्मों इनहीं रिनाच्छहि मान्यौ। हिरनकसिप इनहीं संहारयौ ।
यासौं हमरो कछु न बसाइ। यह कहि असुर रहे खिसियाइ।
बान एक हरि सिव कौ दियौ। तासौ सब असुरनि छन कियौ ।
या विधि हरि जू करी सहाइ। मै सो तुमकौ इर्द सुनाइ।
सुक ज्यौ नृप कौ कहि समुझायौ । सूरदास जन त्यौंही गयौ। ।।7।।
    

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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