हरि चरनारबिंद उर धरौ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल
अर्जुन को निज रूप दर्शन तथा शंखचूड़ पुत्र आनयन


हरि हरि हरि हरि सुमिरन करौ। हरि चरनारबिंद उर धरौ।।
हरि इक दिन निज सभा सँझार। बैठे हुते सहित परिवार।।
अर्जुन हू ता ठौर सिधाए। संखचूड़ तब बचन सुनाए।।
द्वारावती बसत सब सुखी। मैं ही इक हौ अह निसि दुखी।।
मेरे पुत्र होत है जबही। अतरर्धान होत सो तबही।।
अर्जुन कह्यौ द्वारिका माही। ऐसौ कोउ धनुषधर नाही।।
जो तुव सुत की रच्छा करै। अरु तेरौ यह दुख परिहरै।।
मैं तुव सुत की रक्षा करौ। अरु तेरौ यह दुख परिहरौ।।
यह परतिज्ञा जौ न निबाहौ। तौ तन अपनौ पावक दाहौ।।
बिप्र कह्यौ तुम स्याम की राम। कै प्रद्युम्न, अनिरुध अभिराम।।
अर्जुन कह्यौ मैं इनमैं नाही। पै हौ इनके दासन माही।।
अर्जुन है मेरौ निज नाम। धनुष गाँडीव मम अभिराम।
तू निहचिंत बैठि गृह जाइ। समै होइ कहु मोसौ आइ।।
पुत्र प्रसूत समय जब आयौ। बिप्रार्जुन सौ आइ सुनायौ।।
अर्जुन तब सर पिंजर कियौ। पवन सँचार रहन नहिं दियौ।।
गृह कौ द्वारौ राख्यौ जहाँ। अर्जुन सावधान भयौ तहाँ।।

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