हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करौ। हरि-चरनाबिंद उर धरौ।
हरि हरि कहत अजामिल तरयौ। जाकौ जस सब जग विस्तरयौ।
कहौं सो कथा, सुनौ चित लाइ। कहै-सुनै सो नर तरि जाइ।
अजामिल विप्र कनौज-निवासी। सो भयौ वृषली कै गृहवासी।
जाति-पाँति तिन सब बिसराई। भच्छ-अभच्छ सबै सो खाई।
ता भीलिनि कैं दस सुत भए। पहिले पुत्र भूलि तिहिं गए।
लधुसुत -नाम नरायन धरयौ। तासौं हेत अधिक तिन करयौ।
काल-अवधि जब पहुँचौ आइ। तब जम दीन्हे दूत पठाइ।
नारायण सुत-नाम उचारयौ। जम-दूतनि हरि-गननि निवारयौ।
दूतनि कह्यौ बड़ौ यह पापी। इन तौ पाप किए हैं धापी।